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सुलीन बनी थी ? जबकि उसके पति को सूली पर चढ़ाने के लिए ले जा रहे थे!
दूसरी बात, जैसे मनोरमा ने श्रद्धा और शरणभाव के फलस्वरूप अभय, अद्वेष और अखेद - ये तीन विशेषताएँ पायी थी, वैसे उसके पति ने, सुदर्शन ने भी ये तीन बातें पायी थी ! सली पर चढने की सजा होने पर भी वे घबराये नहीं थे, उनके मन में रानी के ऊपर द्वेष नहीं आया था और खिन्नता से उसका मन भर नहीं गया था। तभी वे निश्चल मन से सूली पर चढ़ सके थे ! एकाग्र मन से वे श्री पंचपरमेष्ठि भगवंतों का ध्यान कर सके थे । मनोरमा भी स्थिर मन से परमात्मध्यान में लीन रह सकी थी। शान्तसुधा का पान करें :
वही था उनका शान्तरस का पान ! मनोरमा के मन में शान्ति थी. समता थी, स्वस्थता थी। क्योंकि उसने अपने जीवन की सारी जिम्मेदारी पंचपरमेष्ठि को सौंप दी थी। परमात्मतत्त्व और गुरुतत्त्व को सौंप दी थी । धर्मतत्त्व को सौंप दी थी । अपने पर उसने तनिक भी भार नहीं रखा था। यही तो विशेषता होती है शरणागति के भाव की ।
प्रश्न यही है कि हम अपने दुःखों का भार, अशान्ति का भार...परमात्मतत्त्व को, परमेष्ठितत्त्व को सौंप सकते हैं क्या ? सौंपकर, निश्चित बन सकते हैं क्या ? जिस प्रकार श्रीपालचरित्रं में पढ़ते हैं कि समुद्र में प्रवास करते हुए धवलसेठ ने कपट से श्रीपाल को समुद्र में धक्का दे दिया था। श्रीपाल समुद्र में गिरते ही, उनके परम इष्ट सिद्धचक्रजी को याद करते हैं । उनके हृदय में सिद्धचक्र के प्रति अटूट-अखंड श्रद्धाभाव था, शरणागति थी । वे समुद्र में गिरे, जहाज तो समुद्र में आगे बढ़ गया। श्रीपाल की पलियाँ, श्रीपाल की विपुल संपत्ति...सब कुछ जहाज में था । मित्र के रूप में रहा हुआ धवलसेठ, श्रीपाल का गुप्त रूप से शत्रु ही था। श्रीपाल की पलियाँ, जो कि सभी राजकुमारियाँ थीं और श्रीपाल की संपत्ति, जो कि अपार-अपरिमेय थी...यह सब हड़पने के लिए ही उस दुष्ट धवल ने श्रीपाल को समुद्र में गिरा दिया था। परंतु धर्मो रक्षति रक्षितः । धर्म ने श्रीपाल की रक्षा की । वह एक बड़े मगरमच्छ की पीठ पर पड़ा। मगरमच्छ तैरता हुआ समुद्र के एक किनारे पर श्रीपाल को ले गया । किनारे पर उतरकर श्रीपाल एक वृक्ष के तले जा कर बैठे। उनके मन पर कोई चिन्ता का भार नहीं था । वे निश्चित थे । न कामिनी का भार था, न कंचन का भार था ! सारा । अशरण भावना
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