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________________ चाहता है । द्वीप के ऊपर रखता है और उसको सुखसुविधा देता है । बाद में तो सुरसुंदरी के जीवन में अनेक तूफान आते हैं, अनेक दुःख आते हैं, परंतु श्री नवकारमंत्र के अचिंत्य प्रभाव से और उसके सतीत्व-धर्म के प्रभाव से वह विघ्नों पर विजय पाती जाती है । विद्याधर राजा रत्नजटी के परिचय के बाद उसको अनेक प्रकार के सुख मिलते हैं... उसकी कीर्ति फैलती है और परिणामस्वरूप वह भवसागर को तैर जाती है । अभय - अद्वेष - अखेद : __ अरिहंत-सिद्ध-साधु और धर्म के प्रति पूर्ण श्रद्धाभाव प्रगट होने पर और शरणागति का दिव्य भाव उत्पन्न होने पर मनुष्य निर्भय बन जाता है । कैसे भी विघ्न आयें, आपत्ति आयें...वह निर्भय रहता है । अभय रहता है । दूसरा प्रतिभाव होता है अद्वेष का । उसको, दुःख देनेवाले जीवात्माओं के प्रति द्वेष नहीं होता है । उनके प्रति करुणा होती है, अथवा मध्यस्थभाव होता है । शत्रुता या वैरभाव नहीं होता है । तीसरा प्रतिभाव होता है अखेद का । दुःखों के सामने लड़ते हुए वह थकता नहीं है । परमार्थ-परोपकार आदि धर्मकार्य करते हुए वह थकता नहीं है । उसका मन कभी खिन्न नहीं होता है । उसके मुँह पर कभी निराशा के बादल घिर नहीं आते । दुःखों में भी स्थिर मन से धर्मआराधना का रहस्य : सुदर्शन शेठ की कहानी जानते हो न ? राजा ने जब सुदर्शन शेठ को सूली पर चढ़ाकर मार डालने की सजा सुनायी थी, उस समय सुदर्शन शेठ की पत्नी सती मनोरमा अपने घर में, परमात्मा की मूर्ति के सामने स्थिर मन से, कायोत्सर्गध्यान में खड़ी रह गई थी न ? अपना पति सूली पर चढ़ने जा रहा हो, उस समय पतिव्रता स्त्री स्थिर मन से, निर्भय होकर, परमात्मा के ध्यान में लीन हो सकती है क्या ? कभी सोचा है आप लोगों ने इस घटना के विषय में ? नहीं, क्योंकि इसके बारे में आप कभी सोचते ही नहीं, केवल सुनते रहते हो ! धर्म को सुनते हो और अधर्म का चिंतन करते हो ! फिर धर्म के रहस्यभूत तत्त्व कैसे जान सकते हो ? __महासती मनोरमा की श्रद्धा और शरणागति ने उसको निर्भय बनायी थी। अद्वेषी बनायी थी और अखिन्न बनायी थी। उसमें नहीं था भय, नहीं था द्वेष और नहीं था खेद । चित्त को अस्थिर-चंचल बनानेवाले ये तीन तत्त्व होते हैं न ? भय-द्वेष और खेद । अब समझे न मनोरमा कैसे कायोत्सर्गध्यान में लीन| १७८ शान्त सुधारस : भाग १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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