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कर्म बंधते रहते हैं, कर्म उदय में आते रहते हैं ! इस बात को उपाध्यायजी ने काव्यात्मक शैली में बताया है -
नानाकर्मलतावितानगहने विविध प्रकार के कर्मों की लताओं से गहन भव-वन में अनन्त भ्रान्त जीव भटक रहे हैं ! कल्पना करने की है ! भव-वन की कल्पना करें, उसमें आश्रवों की वर्षा की कल्पना करें... जमीन पर सर्वत्र कर्मों की लताएँ फैली पड़ी हैं... समग्र भूमि कर्मलताओं से दबी हुई है । जीवों को सर्वत्र कर्मलताओं पर ही पैर रखने पड़ते हैं । कुछ लताएँ लिपटती हैं, कुछ लताएँ छूट जाती हैं । अनादिकाल
से यह क्रम चलता रहता है । भव-वन की यह एक भयानक स्थिति है । ___ कुछ कर्मलताएँ जीवों को लिपट कर दुःख देती हैं, कुछ लताएँ लिपट कर सुख देती हैं ! भव-वन में कुछ जगह ऐसी होती है कि जहाँ जीवों को दुःख ही दुःख होता है। वहाँ की कर्मलताएँ दुःख देनेवाली ही होती हैं। वैसे कुछ जगह भव-वन में ऐसी होती है कि जहाँ जीवों को कर्मलताएँ सुख ही सुख देनेवाली होती हैं । परंतु वहाँ भी नयी दुःखदायिनी कर्मलताएँ जीवों से चिपकती रहती हैं ! __कर्मलताएँ इस प्रकार चिपकती रहती हैं कि जीवों को मालूम नहीं पड़ता कि मेरे शरीर पर (आत्मा पर) कर्मों की लताएँ चिपक रही हैं ! कर्मलताओं की यह विशेषता होती है ! परंतु जब चिपकी हुई कर्मलताएँ अपना प्रभाव जताती हैं... तब जीवों को मालूम होता है ! सुख-दुःख... शान्ति-अशान्ति...सब, कर्मलताओं का प्रभाव होता है ! भव-वन में सर्वत्र मोहान्धकार :
पहली बात : भव-संसार वन है । दूसरी बात : भव-वन में आश्रवों की वर्षा हो रही है । तीसरी बात : भव-वन में सर्वत्र कर्मों की लताएँ फैली हुई हैं !
अब उपाध्यायजी चौथी बात बता रहे हैं कि भव-वन में सर्वत्र अंधकार है ! प्रकाश की एक किरण भी नहीं है ! प्रगाढ़ अंधकार व्याप्त है भव-वन में । वह अंधकार है मोह का, अज्ञान का ! उपाध्यायजी कहते हैं :
मोहान्धकारोधुरे (भव-वने) अंधकार में सही मार्ग नहीं दिखता है । अंधेरे में जीव भटक जाता है । गलत रास्ते पर चल देता है । अंधेरे में सही और गलत रास्ते का निर्णय नहीं कर सकता
प्रस्तावना
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