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है । संभव रहता है कि गलत मार्ग को सही मान ले और सही मार्ग को गलत समझ ले । और, यह तो मोह का अंधकार ! बड़ा खतरनाक होता है मोहान्धकार तो। इतना तो रात्रि का अंधकार भी खतरनाक नहीं होता, भूमिगृह का अंधकार भी इतना भयावह नहीं होता, मोह का अंधकार भयावह होता है । जरा सी कल्पना तो करें -
'जंगल है, भयानक है, उसमें मूसलाधार वर्षा हो रही है... जमीन पर सर्वत्र भिन्न-भिन्न प्रकार की लताएँ फैली पड़ी है... सर्वत्र घोर अंधकार है... और हमारा कोई साथी नहीं है... हम अंधेरे में भटक रहे हैं....
कितनी भयानक कल्पना है ? अपने आपको ऐसे जंगल में भूले-भटके हुए देखो ! काँप उठोगे ! रोने लगोगे ! और उस समय यदि आपके मुँह से पुकार निकले-हे प्रभो, मेरी रक्षा करो... मुझे बचा लो इस भीषण वन से !' तो संभव है कि आपकी पुकार सुनायी देगी और आपको बचानेवाले, आपकी रक्षा करनेवाले कहीं से भी आ जायेंगे । आपको दिव्य अभय वचन सुनाई देगा - वत्स, निर्भय बन, मैं तेरी रक्षा करूँगा !' तीर्थंकरों की सुधारसपूर्ण वाणी :
वे अभय वचन होते हैं तीर्थंकर भगवंत के ! वह करुणापूर्ण वाणी होती है, तीर्थंकर परमात्मा की ! करुणा के सागर तीर्थंकर इसीलिए तो अपनी अमृतमयी वाणी बहाते हैं । भव-वन में भूले-भटके जीवों का परम हित करने के लिए ही तीर्थंकर धर्मदेशना देते हैं । धर्मतीर्थ की स्थापना ही इसी हेतु से की जाती है। लोकाहिताय प्रवर्तयामास तीर्थमिदम् । भगवान् उमास्वातीजी के ये वचन
हैं।
__ जब भी भव-वन में आपको भय लगे, संताप लगे, दुःख महसुस हो, तब आप के हृदय से वेदनापूर्ण पुकार निकलनी चाहिए - भगवंत, मेरी रक्षा करो, आपके बिना मेरा कोई सहारा नहीं है । आपके बिना मेरी कोई शरण नहीं है... प्रभो, मुझे इस भयानक भव-वन से बचा लो । हृदय की पुकार सुनायी देती है, रक्षा होती है, किसी भी तरह...किसी भी निमित्त से, माध्यम से रक्षा होती है । विश्वास चाहिए, श्रद्धा चाहिए । उपाध्याय श्री विनयविजयजी कहते हैं -
तीर्थेशैः प्रथितास्सुधारसकिरो रम्या गिरः पान्तु वः ॥ 'तीर्थंकरों की अमृतमयी रम्य वाणी आपकी रक्षा करे !'
शान्त सुधारस : भाग १
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