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________________ श्रीयुत संपतराज चश्वकल्याण प्रवचनकार व साहित्य सर्जक आचार्य श्री विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी. श्रावण शुक्ला १२ वि. सं. १९८९ के दिन पुदगाम- मेहसाणा (गुजरात) में मणीभाई एवं हीराबहन के कुलदीपक के रुप में जन्मे हुए मुलचन्दभाई, जूही की कली की भांति खिलती खुलती जवानी में १८ बरस की उम्र में वि. सं. २००७. महा वद ५ के दिन राणपुर (सौराष्ट्र में अपने परम श्रद्धेय सुप्रसिद्ध जैनाचार्य भगवंत श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के करकमलों द्वारा दीक्षित होकर पू. भानुविजयजी (वर्तमान में आ. श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी) के शिष्य बनते है। मुनिश्री भद्रगुप्तविजयजी के रूप में दीक्षा-जीवन के प्रारंभ से ही अध्ययन-अध्यापन की.सुदीर्घ यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी। ४५ आगमों के सटीक अध्ययनोपरांत दार्शनिक, भारतीय एवं पाश्चात्य तत्वज्ञान, काव्य-साहित्य वगैरह के 'मीलस्टोन' पास करती हुई वह यात्रा सर्जनात्मक क्षितिज की तरफ मुड़ गई। 'महापंथ नो यात्री से २० साल की उम्र में शुरू हुई लेखनयात्रा आज भी अथक एवं अनवरत चल रही है। तरह तरह का मौलिक साहित्य, तत्वज्ञान विवेचना, दीर्घकथाएं, लघु कथाएं काव्य गीत पत्रों के जरिये स्वच्छ व स्वस्थ मार्गदर्शन, यों साहित्य सर्जन का सफर दिन व दिन भरापूरा बन रहा है। प्रेमभरा हँसमुख स्वभाव, प्रसन्न व मृदु आंतर-बाह्य व्यक्तित्व एवं बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय वैसी प्रवृत्तियां उनके जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। संघ-शासन विशेष करके युवा पीढी, तरुण पीढी एव शिशु-संसार के जीवन-निर्माण की प्रक्रिया में उन्हें रुचि है... संतुष्टि है। प्रवचन, वार्तालाप, संस्कार-शिबिर, जाफ-ध्यान अनुष्ठान एवं परमात्म भक्ति के विशिष्ट आयोजनों के माध्यम से उनका सहिष्णु व्यक्तित्व भी उतना ही उन्नत एवं उज्वल बना है। मुनिश्री जानने योग्य व्यक्तित्त एवं महसूसने योग्य अस्तित्व से सराबोर है। कोल्हापूर में ता. ४-५-८७ के दिन उनके गुरुदेव ने उन्हें आचार्यपद प्रदान किया तब से वे आचार्यश्री विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी महाराज के & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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