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(१०) दसवाँ दुःख होता है शोक का । सदैव वे शोकग्रस्त रहते हैं । __नरक के जीवों की तीसरे प्रकार की वेदनाएँ होती हैं परस्पर लड़ने की । आपस में वे एक-दूसरे को दुःख देते हैं ! • जिस प्रकार एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को देखते ही उसको मारने लगता है, वैसे
एक नारकी जीव दूसरे नारकी जीव को मारने लगता है, लड़ता है । वे वैक्रिय रूप करते हैं, क्षेत्रप्रभाव से प्राप्त होनेवाले शस्त्र लेकर वे एकदूसरे के टुकड़े कर डालते हैं, जैसे कतलखाने में पशु के टुकड़े किये जाते हैं वैसे। • वहाँ जो सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं, वे तात्त्विक चिंतन के द्वारा समता से दुःख
सहन करते हैं । वे सम्यग्दृष्टि जीव, मिथ्यादृष्टि नारकों से कम पीड़ा अनुभव करते हैं और कर्मक्षय करनेवाले होते हैं । मिथ्यादृष्टि नारक जीव, क्रोधावेश से परस्पर पीड़ा करते हैं, इसलिए वे बहुत दुःख पाते हैं और बहुत अधिक कर्मबंध करते हैं । मानसिक दुःख की अपेक्षा से समकितदृष्टि जीव ज्यादा दुःखी होते हैं । पूर्वकृत कर्मों का जितना संताप उनको होता है उतना संताप मिथ्यादष्टि जीवों को नहीं होता है ।
अब, परमाधामी-देवों के द्वारा नरक में जीवों को जो दुःख दिये जाते हैं, वे बताकर प्रवचन पूर्ण करूँगा। • अतिशय तप्त लोहे की पूतलियों के साथ जीवों को जोड़ते हैं, • अत्यंत तप्त सीसे का रस पीलाते हैं, • शस्त्र से शरीर को क्षत-विक्षत कर, उस पर क्षार डालते हैं, • गर्म-गर्म तैल से स्नान करवाते हैं, • भयंकर आग में डालते हैं, • भाले से बिंधते हैं, • कोल्हू में डालकर पीसते हैं, • आरी से काटते हैं, • आग जैसी रेती पर चलाते हैं, • बाघ, सिंह जैसे पशु के रूप धर जीवों को सताते हैं, • मूर्गों की तरह परस्पर लड़ाते हैं, | संसार भावना
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