________________
संतों का उदासीन भाव :
उपाध्याय श्री विनयविजयी 'अनित्यभावना में ६ बातों की अनित्यता बताकर एक प्रश्न पूछते हैं :
तत्किं वस्तु भवे भवेदिह मुदामालम्बनं यत्सताम् ?' इस संसार में ऐसी कौन सी वस्तु है कि जो सज्जनों को, संतो को हर्ष प्रदान करें ? ऐसी एक भी वस्तु नहीं है, जिस से संतों को हर्ष हो ! मैं सताम् का अर्थ संतपुरूष करता हूँ । संतपुरूष वे होते हैं जो आत्मज्ञानी होते हैं । जड़ और चेतन का भेद जिन्हा ने जाना होता है । आत्मा और पुद्गल का भेदज्ञान जिह्नों ने पाया होता है । इसलिए संसार में संतपुरूष हर्ष-शोक से मुक्त हो, उदासीन भाव में रहते है । श्री चिदानन्दजी ने कहा है -
धन्य धन्य जग में ते प्राणी, जे नित रहत उदास,
शुद्धविवेक हिये में धारी, करे न पर की आस. संसार में उदासीन भाव से जीना सरल नहीं है, इसलिए उदासीन भाव से जीनेवाल संतों को चिदानन्दजी धन्यवाद देते हुए कहते हैं धन्य ! धन्य !' यह बात तभी घटती है, जब भीतर में शुद्ध विवेक का उदय होता है । यानी चेतन - अचेतन का भेदज्ञान स्पष्ट रूप से उद्भासित होता है । ___ शरीर, आयुष्य, जीवन, संपत्ति, वैषयिक सुख, स्वजन परिवार इत्यादि के प्रति, मोहित नहीं होता है, वैसे उद्विग्न भी नहीं होता है । राग और द्वेष रहित उदासीन स्थिति बनी रहती है । ऐसी उदासीन स्थिति पाना विद्वानों के लिए भी मुश्किल होती है, इस बात को गाते हुए निराशा के सुर में विनयविजयजी कहते हैं :
प्रातभ्रातरिहावदातरुचयो ये चेतनाऽचेतना, द्रष्टा विश्वमनः प्रमोदविदुरा भावाः स्वतः सुन्दराः । तांस्तत्रैव दिने विपाकविरसान् हा नश्यतः पश्यत
श्चेतः प्रेतहतं जहाति न भवप्रेमानुबन्धं मम ॥ मैं जानता हूँ, देखता हूँ कि जो चेतन-अचेतन पदार्थ, प्रभात में शोभायमान होते हैं, मन को प्रसन्न कर देनेवाले होते हैं, आह्लादक व आकर्षक होते हैं, वे ही पदार्थ संध्या के समय निरस, निस्तेज और अनाकर्षक बन जाते हैं ! यह प्रत्यक्ष देखने पर भी मेरा प्रेतहत मन, मूढ़ मन उन पदार्थों का प्रेम... मोह... राग छोड़ता नहीं है... यह बड़ी दुःख की बात है ।
__ अनित्य भावना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org