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महाराजा श्रेणिक, राजगृहीनगरी के बाहर मंडितकुक्षी नाम के उद्यान में घूमनेफिरने आये थे । मंडितकुक्षी उद्यान नंदनवन जैसा सुंदर था। उस उद्यान में एक वृक्ष के तले बैठे हुए सुकोमल और समाधिमग्न युवा मुनि को देखा । मुनि को देखकर श्रेणिक राजा को बड़ा आश्चर्य होता है । वह सोचता है : इस मुनि का गौररूप, आकार वगैरह अपूर्व और अलौकिक है । इसके मुँह पर अद्भुत सौम्यता है, चमत्कारिक क्षमाभाव है और अद्वितीय निःस्पृहता दिखती है । राजा ने मुनिराज के चरणों में वंदना की, तीन प्रदक्षिणा दी और विनय से मुनिराज के सामने बैठा। __ मस्तक पर अंजलि रचाकर, राजा ने मुनिराज को प्रश्न पूछा : 'हे मुनि, आप तरुण हैं, युवक हैं, यह आपकी विषयभोग की उम्र है । इस उम्र में आप क्यों साधु बन गये ? कोई ऐसा कारण होगा, जिसकी वजह से आप साधु बने हो । मेरी जिज्ञासा है वह कारण जानने की । ___ मुनि ने राजा के सामने देखा । उसकी आँखों में झाँका और बोले : 'राजन, मैं अनाथ हूँ, अशरण हूँ । मेरा योग-क्षेम करनेवाला नाथ' मुझे मिला नहीं, कोई शरणदाता करुणावंत पुरुष मिला नहीं, कोई वैसा स्नेही-स्वजन-मित्र मिला नहीं, इसलिए यौवनकाल में मैं साधु बना ।। ___ मुनिराज की बात सुनकर राजा श्रेणिक हँसने लगे। उन्होंने कहा : हे आर्य, ऐसा ही है, तो मैं आपका नाथ बनूँगा । और यदि मैं नाथ बना तो आपको अनेक मित्र, स्वजन, स्नेही मिलेंगे। बस, आप वैषयिक सुख भोगते रहें और मनुष्यजन्म को सफल करें।
यह सुनकर मनि के मुँह पर स्मित उभर आया। वे बोले : हे मगधाधिपति. तूं स्वयं अनाथ है, तूं मेरा नाथ कैसे बनेगा ?'
अप्पणा वि अणाहोसि सेणिया मगहाविहा ।
अप्पणा अणाहो संतो कहं मे भविस्ससि ? ॥ __ वैसे भी श्रेणिक पहले ही मुनि के रूप-गुण से विस्मित था ही, परंतु जब मुनि के इस प्रकार वचन सुने तब वह अत्यंत विस्मित हुआ, अत्यंत संभ्रमित हुआ और बोला : ___ हे मुनि, मेरे पास हाथी, घोड़े और अंतःपुर है । मैं हजारों गाँव-नगरों का मालिक हूँ। मैं मनुष्ययोग्य विपुल भोग भोगता हूँ। मैं मगधदेश का शासक हूँ । अनेक
शान्त सुधारस : भाग १
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