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संबंधों में दंभ और कपट मिल जाते हैं, तब उसके कटु-परिणाम आते हैं । जब तक माता-पुत्र का, पति-पत्नी का, भाई-भाई का, भाई-बहन के संबंध निःस्वार्थ रहते हैं तब तक वे संबंध पवित्र माने गये हैं । इस द्रष्टि से मातृदेवो भव, पितृदेवो भव...' कहा गया है, परंतु उन्ही संबंधो में स्वार्थवृत्ति आ जाती है तब द्वेष दंभ, इर्ष्या आदि दोष संबंधों का असार-निःसार बना देते हैं ।
तत्त्वविजय' नाम के एक मुनि - कवि ने एक काव्य लिखा है - केहना रे सगपण ? केहनी माया ? केहनी मज्जन-सगाई रे, सज्जन-वर्ग कोई साथ न आवे, आवे प्रा) कमाई रे.............१ माझं माझं सौ कहे प्राणी तारी कोण सगाई रे ? आप स्वारथ सहुने वहालो, कुण मन्नार कुण माई रे ?..........२ चुलणी उदरे ब्रह्मदत्त आयो जुओ मात सगाई रे, पुत्र मारण ने अग्नि ज कीधी, लाग्वनां घर निपजाई रे............३ काष्टपिंजरमां घालीने मारे, शमन यही दोडे थाई रे, कोणिके निज तात ज हणीयो, तो किहाँ रही पुत्र सगाई रे ?..४ भरत-बाहुबली आपे लडीया, आये सज्ज थाई रे, बार वरस संग्राम ज कीधो. तो किहाँ रही भ्रातृ-सगाई रे ? ...५ गुरु उपदेशथी राय प्रदेशी, सुधो समकित पाई रे, स्वारथवश सुरकान्ता नारी, मार्यो पियु विष पाई रे...........६ निज अंगजना अंगने छेदे, जुओ राहु केतु कमाई रे, सह-सहुने निज स्वारथ वहालो, कुण गुरु, कुण भाई रे ? .....७ सुभूम-परशुराम ज दोई माहोमांहे वेर बनाई रे, क्रोध करीने नरके पहोंच्या, किहाँ गई तात-सगाई रे ? ..........८ चाणक्ये तो पतन साथे कीधी मित्र सगाई रे, मरण पाम्यो ने मनमां हरख्यो, किहाँ रही मित्र सगाई रे ?......९
इस काव्य को समझे न ? संबंधों की अनित्यता, निःसारता समझने के लिए इतने द्रष्टांत पर्याप्त नहीं हैं क्या ? • माता और पुत्र के संबंध की असारता बताते हुए उन्हों ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती
और उसकी माता चुलणी का द्रष्टांत दिया है। माताने पुत्र को मारने के लिए लाक्षागृह में आग लगायी थी।
शान्त सुधारस : भाग १
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