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होता रहता है, जहाँ सदाकाल कर्मपरवशता होती है, जहाँ नये-नये जन्म और नये-नये रूप धारण करने पड़ते हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार के अभिनय करने पड़ते हैं... ऐसे दुःखपूर्ण संसार का परिभ्रमण मिटाना हो तो पापत्याग का पुरुषार्थ करना होगा । पापों का त्याग करना ही होगा । इस मनुष्य-जीवन में ही पापत्याग का पुरुषार्थ हो सकेगा।
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जिनेश्वर भगवंतों ने १८ प्रकार के पाप बताये हैं। शायद आप लोग जानते होंगे इन पापों को । फिर भी नामनिर्देश करता हूँ ।
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१. हिंसा
७. मान
८. माया
२. मृषावाद ३. चोरी
९. लोभ
४. मैथुन
५. परिग्रह
१०. राग
११. द्वेष
१३. अभ्याख्यान
१४. पैशुन्य ( चुगली)
१५. रति - अरति
१६. पर - परिवाद ( निंदा)
१७. माया - मृषावाद (दंभ से झूठ ) १८. मिथ्यात्वशल्य
६. क्रोध
१२. कलह
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ये १८ पाप हैं । संसार - परिभ्रमण के ये पाप ही कारणभूत हैं। इसलिए इन पापों का त्याग करना अनिवार्य है, यदि संसार से मुक्ति चाहिए तो । मोहमदिरा से बुद्धिभ्रष्टता :
परंतु सदैव मोहमदिरा का पान करनेवाले जीवों की बुद्धि भ्रष्ट होती ही है । ऐसे जीवों को तो संसार में भटकना ही है। संसार की चार गति में जन्ममृत्यु करना ही है । बुद्धिभ्रष्ट लोगों को संसार की असारता समझाना असंभव होता है । वे संसाररसिक होते हैं । उनको तो वैषयिक सुख ही प्रिय होते हैं । आत्मा... आत्मसुख... मोक्ष ... मोक्षसुख की बातें उनको प्रिय नहीं लगती हैं । उनको इन बातों से कोई मतलब नहीं होता है ।
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मोहान्ध-बुद्धिभ्रष्ट लोगों को पापों का भय नहीं होता है, उनको तो दुःखों का भय होता है । उनको दुःख नहीं चाहिए ! परंतु वे दुःखों से बच नहीं सकते । जो लोग पाप करते हैं, उनको दुःख भोगने ही पड़ते हैं । वे संसार की दुर्गतियों में जन्म-मरण करते रहते हैं ।
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महाकाल जादूगर है :
ऐसे मोहमदिरा के व्यसनी और बुद्धिभ्रष्ट लोग, संसार में अनेक प्रकार की चिन्ताओं की अग्निज्वाला में जलते रहते हैं । सतत चिंता करनेवाला मनुष्य, एक
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शान्त सुधारस : भाग १
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