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हम सिद्धों के साधर्मिक : ___एक अपनी नयी पहचान कर लो । चौदह राजलोक के ऊपर जो सिद्धशिला है, जहाँ सिद्ध-बुद्ध-मुक्त अनंत आत्माओं का अवस्थान हैं, जो पूर्णानन्दी हैं, जो पूर्ण सुखी हैं, जो पूर्ण ज्ञानी हैं... वे हमारे साधर्मिक हैं ! हम भी उनके जैसे ही हैं । वे हमारे जैसे हैं ! वे ही साधर्मिक कहलाते हैं, जिनके गुणधर्म समान होते हैं । उनके ज्ञान, सुख, आनंद आदि अनंतगुण हैं, हमारे भी हैं ! उनके प्रगट भय हैं, हमारे प्रच्छन्न हैं ! अस्तित्व (सत्ता) की दृष्टि से उनकी आत्मसत्ता जैसी हमारी भी आत्मसत्ता है ।।
कल्पना करें सिद्धशिला की । कल्पना करें विशुद्ध आत्मसत्तावाले सिद्ध भगवंतों की !
और उनसे कहें : हे सिद्ध भगवंत, हम आपके साधर्मिक हैं ! हम आप जैसे ही हैं, फिर हमें यहाँ मध्यलोक में क्यों रहने दिया ? हमें भी वहाँ आपके सिद्धलोक में बुला लो! हमें वहाँ आना है । आपके पास रहना है। अब इस १४ राजलोक में परिभ्रमण नहीं करना है । कृपा करो, हमें आपके पास ले लो। आत्मा ही भगवान् है :
कितनी उल्लासप्रेरक, उत्साहप्रेरक बात कही है ग्रंथकार ने ! एक एव भगवानयमात्मा ।' यह आत्मा ही एक भगवान है, प्रभु है ! यानी मैं जो आत्मा हूँ, भगवान हूँ ! सिद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, मुक्त हूँ। पूर्णानन्दी हूँ, पूर्ण ज्ञानी हूँ, पूर्ण सुखी
शुद्ध नयदृष्टि की इस भावना से सदैव भावित होना है । इससे पापों का नाश होता है और आत्मस्वरूप प्रगट होता है :
देह-मन-वचन पुद्गल थकी, कर्मथी भिन्न तुज स्प रे, अक्षय अकलंक छे जीवनू, ज्ञान-आनंद सस्प रे...
चेतन, ज्ञान अजवालीए । 'अमृतवेली काव्य में उपाध्यायश्री यशोविजयजी ने यह उपदेश-प्रेरणा दी है । मन-वचन-काया से मुक्त, कर्मों से मुक्त आत्मसत्ता का चिंतन करना है। * मैं मनस्वरूप नहीं हूँ, मन पौद्गलिक है, मैं आत्मा हूँ। * मैं वचनस्वरूप नहीं हूँ, वचन पौद्गलिक है, मैं चेतन हूँ । * मैं शरीरस्वरूप नहीं हूँ, शरीर पौद्गलिक है, मैं आत्मा हूँ ! | एकत्व-भावना
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