________________
* मैं जो आत्मा हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ, कर्मों से भिन्न हूँ । * मैं ज्ञानात्मा हूँ । मैं दर्शनात्मा हूँ। मैं स्वगुणभोगी हूँ ।
इस प्रकार स्वगुण - चिंतन करते हुए अपनी विशुद्ध आत्मसत्ता की ओर देखना है । तभी पूर्ण निर्मलानंद की ओर गति होगी । कहा है
ज्ञाननी तीक्ष्णता चरण तेह, ज्ञान - एकत्वता ध्यानगेह, आत्मतादात्म्यता पूर्णभावे, तदा निर्मलानंद संपूर्ण पावे 1
ज्ञान - ज्ञानी की अभेद स्थिति के ध्यान से जब तादात्म्य हो जाता है, तब आत्मा निश्चल आनन्द की अनुभूति करती है और समतारस का आस्वाद करती है । यह है आत्मा के एकत्व की भावना का सर्व प्रथम प्रकार । और, इस प्रकार आत्मरमणता करने पर निरवधि आंतरिक प्रसन्नता प्राप्त होती है । उसका मन तृण और मणि को समान देखता है, देव और नरक को समान देखता है । माटे निजभोगी योगीसर सुप्रसन्न, देव-नरक, तृण-मणि सम, भासे जेहने मन्न एकत्व - भावना में दीनता नहीं है :
इस प्रकार, 'निश्चयदृष्टि से आत्मा के एकत्व का चिंतन करने पर 'मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, ऐसी दीनता नहीं आयेगी । 'मैं अकेली आत्मा हूँ, मैं भगवान हूँ, मैं प्रभु हूँ, मैं अनन्त सुखमय... ज्ञानमय और आनन्दमय हूँ, इस प्रकार का एकत्व का चिंतन दीनता पैदा नहीं करता है, परंतु आत्मविश्वास पैदा करता है । आत्मश्रद्धा पैदा करता है। सच्चे अर्थ में अपनी पहचान है यह । जब तक आत्मतत्त्व की पहचान नहीं होती है तब तक तप - संयम भी व्यर्थ होते हैं; दुःखों का, संसार का अन्त नहीं आता है । कहा गया है
कष्ट करो, संयम धरो, गालो निज देह, ज्ञानदशा विण जीवने, नहीं दुःखनो छेह
जब तक आत्मतत्त्व की पहचान नहीं होती तब तक भवदुःख, संसार के दुःख
भोगने ही पड़ते हैं । आत्मज्ञान होने पर ही भवदुःख मिटते हैं । आतम - अज्ञाने करी, जे भवदुःख लहीए, आतमज्ञाने ते टले, एम मन सद्रहीए
-
Jain Education International
आत्मा के अलावा सब कुछ कल्पना :
I
वास्तविक तत्त्व एक मात्र आत्मा है । शेष सब कुछ कल्पना है । एक मात्र ममत्व है । जीव को यह अज्ञानजन्य ममत्व ही दुःखी करता है । जो 'मैं' नहीं
1
२३८
शान्त सुधारस : भाग १
—
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org