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________________ जिनवचन रक्षा करते हैं: उपाध्यायजी की यह बात सौ प्रतिशत सही है । जीवात्मा यदि जिनवचनों का सहारा लेता है, तो जिनवचन अवश्य जीव की अशान्ति मिटा देते हैं । उसके भयों का नाश कर देते हैं। जिनवचनों की शरण लेने पर जीव अभय, अद्वेष और अखेद का अनुभव करते हैं। और, जीवन में से सभी भय चले जायें, द्वेष दूर हो जायें एवं खेद-उद्वेग नष्ट हो जायें, फिर क्या चाहिए ? सुख मिल जाता है, शान्ति मिल जाती है और उत्साह-उल्लास जाग्रत हो जाता है ! बस, सब कुछ मिल गया ! यही जिनवचनों का महान् प्रदान है । यही उनकी रक्षा है ! 'शान्तसुधारस महाकाव्य, जिनवचनों की गंगा है । इस गंगा में स्वच्छन्द बनकर स्नान करना है । आते रहें प्रतिदिन यहाँ स्नान करने । यह गंगा का घाट है ! एक घंटे तक स्नान करते रहें । सभी दुःखों को भूल जाओगे, सभी अशान्ति बह जायेगी, सभी प्रकार के भय दूर हो जायेंगे... निर्भयता के गीत गाने लगोगे । मैंने तो अनेक बार इस महाकाव्य को गाया है, नगरों में गाया है और जंगलों में भी गाया है । बहुत आनंद पाया है । आध्यात्मिक मस्ती का अनुभव किया है । मैं इसका सारा श्रेय उपाध्यायजी को देता हूँ | चूँकि उन्होंने शान्तसुधारस जैसे अद्वितीय अध्यात्म-काव्य का सर्जन कर हम पर परम उपकार किया है । जनम-जनम हम इस उपकार का बदला नहीं चुका सकते हैं । यह साधारण उपकार नहीं है, परम उपकार है । जिनवाणी ने आत्महत्या से बचाया : एक शहर में हमारा चातुर्मास था। हर रविवार के दिन दोपहर में जाहिर प्रवचन होते थे। एक रविवार को इन भावनाओं के विषय में प्रवचन था। प्रवचन पूर्ण होने के बाद मेरा एक परिचित युवक एक मित्र को लेकर मेरे पास आया और उसका परिचय देते हुए कहा : महाराज श्री, यह मेरा मित्र है, सरकारी नौकर है, अच्छी पोस्ट पर है, वह घुमने जा रहा था, मैं उसको प्रवचन में ले आया । इसने ध्यान से प्रवचन सुना और बहुत प्रभावित हुआ है । उस युवक ने कहा : 'महाराजश्री, सच कहता हूँ कि मुझे आज नया जीवन मिला है । मैं आज घर से निकला था आत्महत्या करने के लिए ही। मैं दो वर्ष से बहुत अशान्त था ! पति-पत्नी का संबंध टूट चूका था । मैं अति निराश हो गया था। जीना मेरे लिए अशक्य बन गया था...आज मैं जीवन का अंत लाने को ही घर से प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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