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कैसी अलौकिक क्षमा है और कैसा अद्वितीय-असाधारण संतोष है ! ___ हे पूज्य, आप उत्तम गुणों से संपन्न हैं, इसलिए वर्तमान जीवन में उत्तम हैं
और परलोक में भी उत्तमोत्तम होंगे। आप कर्ममुक्त बनकर उत्तमोत्तम स्थानमुक्ति में जायेंगे । इस प्रकार स्तुति-स्तवना कर इन्द्र आकाशमार्ग से देवलोक में चला गया।
उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं : इन्द्र ने प्रत्यक्ष होकर नमि राजर्षि की स्तुति की, फिर भी नमि राजर्षि गर्वित नहीं बने ! परंतु वे विशेष रूप से आत्मभाव में लीन बने !
नमि नमेइ अप्पाणं । बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कह दी है । नमि राजर्षि अपने आत्मस्वरूप में विशेष रूप से लीन बने ! प्रशंसा सुनकर तनिक भी बाह्य भाव में नहीं गये । एकत्व और समत्व की आराधना को चूके नहीं, परंतु उसमें गहरे डूब गये। - इस प्रकार चौथी एकत्व-भावना के पाँच प्रारंभिक श्लोकों का विवेचन पूर्ण कर, अपन उस भावना के गेय काव्य का विवेचन शुरू करते हैं। यदि आपको शास्त्रीय रागों का ज्ञान हो तो यह गेय काव्य परजीया या भीमपलास राग में गा सकते हैं । सुनें - विनय चिन्तय वस्तुतत्त्वं, जगति निजमिह कस्य किम् ? भवतिमतिरिति यस्य हृदये, दुरितमुदयति, तस्य किम् ॥१॥ एक उत्पद्यते तनुमा-नेक एव विपद्यते एक एव हि कर्म चिनुते, सैककः फलमश्नुते ॥२॥ यस्य यावान्परपरिग्रह-विविधममतावीवधः । जलविधिविनिहित पोतयुक्त्या, पतति तावदसावधः ॥३॥ स्वस्वभावं मद्यमुदितो भुवि विलुप्य विचेष्टते । दृश्यतां परभावघटनात्, पतति विलुठति जृम्भते ॥४॥ पहले इन श्लोकों का अर्थ सुन लें -
ओ विनय, तू वस्तु के वास्तविक रूप का भलीभाँति चिंतन कर। इस विश्व की जेल में मेरा अपना क्या है ? ऐसी पारदर्शी प्रज्ञा जिसके दिल में प्रगट हो जाती है, उसे फिर दुःख-दुरित छुएगा भी कैसे ?
शरीरधारी आत्मा अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मोत का शिकार होता है । कर्मों का बंध भी अकेले ही करता है और कर्मों को भुगतना भी उसे
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शान्त सुधारस : भाग १
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