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स्पर्श के, प्रिय स्पर्श के विषय मिले हों परंतु शरीर की चमडी ही 'सेन्सलेस' अनुभवरहित हो गई हो, किसी प्रकार का प्रिय अप्रिय स्पर्श का अनुभव ही नहीं हो ... !
विषयों की अनित्यता के साथ इन्द्रियों की भी अनित्यता का, चंचलता का चिंतन करना चाहिए । यह चिंतन जीवात्माको विषयलोलुप नहीं होने देगा । योगी चिदानन्दजी ने 'पुद्गल - गीता में विषय सुखों के उपभोग के भयानक परिणाम बताये हैं
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पुद्गलिक सुख सेवत अहनिश, मन- इन्द्रिय न धावे, जिम घृत मधु आहूति देतां, अग्नि शान्त न थावे ॥ जिम जिम अधिक विषय सुख सेवे, तिम तिम तृष्णा दीपे, जिम अपेय जल पान किया थका, तृषा कहाँ किम छीपे ? पुद्गलिक सुखना आस्वादी एह मरम नवि जाणे, जिम जात्यंध पुरुष दिनकरनुं तेज नवि पहिचाणे || इन्द्रियजनित विषयरस सेवत वर्तमान सुख ठाणे, पण किंपाक तणां फलनी परे, नवि विपाक तस जाणे ॥ फल किंपाक थकी एक ज भव, प्राण हरण दुःख पावे, इन्द्रियजनित विषयरस ते तो, चिहुं गति में भरमावे || एवं जाणी विषयसुख सेंती विमुख रूप नित रहिये, त्रिकरण योगे शुद्धभाव धर, भेद यथारथ लहिये ॥
पाँच इन्द्रियों के विषय - सुख 'अनित्य' हैं, ऐसा कहकर ज्ञानी पुरुष जीवों को विषय सुखों से आसक्ति तोड़ने की प्रेरणा देते हैं । विषय सुख भोगने जैसे नहीं हैं - इस बात को अच्छी तरह समझाते हुए योगी श्रीचिदानन्दजी ने कहा है * रात-दिन विषय सुख भोगने पर मन और इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होती हैं ! जिस प्रकार अग्नि में घी और मधु की आहूति डालने पर अग्नि शान्त नहीं होती, परंतु विशेष प्रज्वलित होती है ।
* जैसे जैसे ज्यादा विषयसुख जीव भोगता है, वैसे वैसे तृष्णा बढ़ती है। जिस प्रकार समुद्र का पानी पीने से तृषा शान्त नहीं है परंतु बढ़ती है ।
* परंतु जिन जीवों को विषय सुखों में ही मजा आ गया होता है वे लोग इस मर्म को नहीं जानते । जिस तरह जन्मांध मनुष्य सूर्य के प्रकाश को पहचान
शान्त सुधारस : भाग १
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