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था कि मेरी पत्नी, उसके यार की समाधि पर रोजाना सर्वप्रथम नैवेद्य चढ़ाकर बाद में ही मुझे भोजन परोसती थी ! एक दिन मैंने उसको कहा : हे प्रिये, आज मुझे घेवर खाने की इच्छा हुई है, इसलिए घेवर बनाना । जब तक मैं भोजन नहीं कर लँ, तब तक और, किसी को घेवर देना नहीं । मेरी बात सुनकर वह बोली : हे प्राणनाथ, आप ऐसा क्यों बोलते हो ? आपसे ज्यादा मुझे कौन प्रिय है ? घेवर का भोजन तैयार हो गया। मैं भोजन करने बैठा । मेरी पत्नी ने पहला ही घेवर यह तो जल गया है, ऐसा बोलकर, छिपाकर रखे हुए घड़े में डाल दिया । मैंने देख लिया । मुझे क्रोध आ गया। मैंने कहा : रे दुष्टा, अभी भी तू तेरे मरे हुए यार को भूली नहीं है ?' __ मेरी पत्नी को भयंकर गुस्सा आया । मैं वहाँ से भागा । वह मेरे पीछे दौड़ी। उसके हाथ में गर्म-गर्म घी की कढाई थी। उसने मेरे शरीर पर घी डाल दिया। मेरा शरीर जलने लगा। मेरे मुँह से तीव्र चीख निकल पड़ी । मैं मेरे पिताजी के पास गया । उपचार करवाये, मुझे आराम हुआ। मेरा मन विरक्त बन गया था। हालाँकि मगधसेना मुझे हृदय से प्यार करती थी, परंतु मुझे संसार के सभी भोगसुखों के प्रति नफरत हो गई थी । मैंने चारित्रधर्म स्वीकार करने का निर्णय कर लिया। “हे मंत्रीश्वर, मैं पूज्य सुस्थिताचार्यजी के पास पहुँचा । उन्होंने मुझे चारित्र दिया । मेरे पूर्वजीवन की यह बात याद आ जाने पर मेरे मुँह से भयाद्भयम् शब्द निकल गया ।" __ अभयकुमार को सचमुच, चौनक मुनि के पूर्वजीवन की बात दुःखदर्द से भरी हुई मालुम हुई । उन्होंने मुनिराज को कहा : हे महामुनि, आपने चारित्रधर्म का स्वीकार कर, मानवजीवन को सफल कर दिया। भीषण भवसागर को तैर जाने के लिए चारित्रधर्म ही जहाज है। ___ एक रात में चार-चार मुनिवरों की रोमांचक आत्मकथाएँ सुनकर अभयकुमार का मन संसार के वैषयिक सखों से विरक्त बना था। प्रातः पौषधव्रत पूर्ण कर, वैराग्य की मस्ती पाकर वे राजमहल पहुँचे । आप लोग भी वैराग्य की मस्ती लेकर घर लौटोगे न ? हृदय में कुछ हलचल मची क्या ? मनुष्यभव के दुःख : - उपाध्यायश्री विनयविजयजी, मनुष्य-जन्म के दुःखों का वर्णन करते हुए कहते
सहित्वा सन्तापानशुचिजननीकुक्षिकुहरे, संसार भावना
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