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( राग : भैरवी) कलय संसारमतिदारुणं, जन्ममरणादिभयभीत रे, मोहरिपुणेह सगलग्रहं प्रतिपदं विपदमुपनीत रे ॥ १ ॥ कलय० स्वजनतनयादिपरिचयगुणै - रिह मुधा बध्यसे मूढ रे,
प्रतिपदं नवनवैरनुभवैः परिभवैरसकृदुपगूढ रे ॥ २ ॥ कलय० घटयसि क्वचन मदमुन्नतेः क्वचदहो हीनतादीन रे, प्रतिभवं रूपमपरापरं, वहसि बत कर्मणाधीन रे || ३ || कलय० जातु शैशव - दशापरवशो, जातु तारुण्यमदमत्त रे,
जातु दुर्जयजराजर्जरो, जातु पितृपतिकरायत्त रे ॥ ४ ॥ कलय० उपाध्याय श्री विनयविजयजी 'शान्तसुधारस' ग्रंथ में तीसरी संसार - भावना का गान करते हुए कहते हैं: रे जीव, मोहशत्रु ने तुझे गले से पकड़कर, कदमकदम पर सताया है । तू इस संसार को जन्म - मृत्यु के भय से घिरा हुआ समझ और उसे अत्यंत डरावना मान ।
रे मूढ़ जीव, स्वजन - परिजन एवं रिश्तेदारों के साथ के तेरे मीठे संबंधों के बंधन फिजूल हैं । कदम-कदम पर तुझे इस संसार के नये-नये हालातों की परेशानी नहीं उठानी पड़ती क्या ? पग-पग पर तेरा पराभव नहीं होता है क्या ? तनिक शान्ति से सोच तो सही ।
'कभी तू तेरी संपत्ति से गर्विष्ठ हो उठता है, तो कभी दरिद्रता के चंगुल में फँसकर दीन-हीन हो उठता है । तू कर्मों को परवश है। इसलिए तो जनमजनम में नये-नये रूप रचाता है । अलग-अलग स्वांग बनाता है, संसार के रंगमच के ऊपर तू एक अभिनेता ही है ।'
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'कभी तेरा बचपन इठलाता है, कभी तरुणाई के आवेगों से उन्मत्त होकर तू अठखेलियाँ करता है, कभी दुर्जय बुढ़ापे से तेरा शरीर जर्जरित हो जाता है और इस तरह अंत में तू यमराज के पंजों में फँस जाता है ।'
संसार - भावना की इन चार गेय गाथाओं में ग्रंथकार ने नौ बाते कही हैं । पहले नौ बातें बताकर, बाद में एक-एक बात पर विवेचन करूँगा ।
१. मोहशत्रु का सताना ।
२. संसार को भयाक्रान्त- डरावना समझना ।
३. सारे रिश्ते फिजूल ।
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शान्त सुधारस : भाग १
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