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लोग तालाब में, नदी में, सरोवर में...Bath (बाथ) में पड़े रहते हैं न ? ताप से बचते हैं, शीतलता पाते हैं । वैसे संतप्त मन को शान्ति प्राप्त करनी है तो शान्तसुधारस' के बाथ' में स्नान करने प्रतिदिन आया करो। यह भव-वन है: __ उपाध्यायजी ने ग्रंथ का मंगलाचरण करते हुए तीर्थंकरों की रम्य, करुणासभर
और हितकारी वाणी की स्तवना की है। हम भी जिनवाणी को प्रणाम कर उनकी स्तवना करते हैं । चूँकि जिनवाणी ही संसार की, भव की भ्रमणा को मिटा सकती है । जीवात्मा की सबसे बड़ी भ्रमणा है भव-संसार को नगर मानने की, स्वर्ग मानने की... संदर शहर या ग्राम मानने की । भ्रमणा यानी असत् ! भ्रमणा यानी झूठ! जो नहीं है वह दिखता है – यह होती है भ्रमणा । रेगिस्तान के प्रदेश में पानी नहीं होता है, फिर भी मृग को पानी दिखता है, मनुष्य को पानी दिखता है, यह भ्रमणा होती है । नहीं होता है पानी, फिर भी दिखायी देता है, वह पानी की भ्रमणा होती है । ___ संसार नगर नहीं है, वन है, भीषण वन है । यह वास्तविकता है । सत्य है। संसार में स्वर्ग के, नगर के, शहर के दर्शन होते हैं, यह भ्रमणा है, असत्य है ! सर्वप्रथम भ्रमणा से मुक्त होना आवश्यक है । वास्तविकता का स्वीकार करना आवश्यक है । आप कहोगे : हमें आँखों से नगर...शहर...गाँव दिखता है... प्रत्यक्ष दिखता है, फिर भ्रमणा कैसे माने ? अपनी आँखों से ही रेगिस्तानी प्रदेश में पानी दिखता है न ? वह भ्रमणा होती है न ? अपनी आँखों से ही श्वेत वस्तु पीली दिखायी देती है न ? वह भ्रमणा होती है न ? आँखों पर भरोसा मत करो । जिनवचन पर भरोसा करना होगा । जगन्मिथ्या' जो जगत् दिखता है, वह मिथ्या है, असत् है । वह स्वर्ग नहीं है, नगर, गाँव नहीं है... जंगल है, कानन है, वन है। ___ एकान्त में इस बात पर सोचना ! आँखें मूंद कर और मनःचक्षु खोल कर सोचना । संसार वन दिखेगा । संसार घोर जंगल दिखेगा ! यह कोई कवि की कल्पना नहीं है, कोई दुःखी मनुष्य के उद्गगार नहीं हैं, यह पूर्ण ज्ञानी, करुणासागर तीर्थंकर परमात्मा के वचन हैं । इसलिए यह बात विश्वसनीय है, श्रद्धागम्य है । ज्ञान के आलोक में दिखायी देनेवाला सत्य है । अविरत आश्रव-जलवर्षा : इस भव-वन में निरंतर वर्षा हो रही है । आश्रव' - बादलों से वर्षा हो
प्रस्तावना
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