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________________ नीरन्धे भवकानने परिगलत् पञ्चासवाम्भोधरे, नानाकर्म-लतावितानगहने मोहान्धकारोद्धरे । भान्तानामिह देहिनां हितकृते कारुण्यपुण्यात्मभिस्तीर्थेशैः प्रथितास्सुधारसकिरो रम्या गिरः पान्तु वः ॥ १ ॥ जिन महापुरुष का जीवनकाल वि. सं. १६६१ से १७३८ का था, जिनकी जननी का नाम राजेश्री था और पिता का नाम तेजपाल था, वे उपाध्यायश्री विनयविजयजी की यह अद्भुत रचना है शान्तसुधारस । यह संस्कृत महाकाव्य है, गेय काव्य है । इस महाकाव्य के माध्यम से उपाध्यायजी की प्रकांड और प्रचंड प्रज्ञा - प्रतिभा का परिचय प्राप्त होता है । उनके आन्तर-बाह्य विरक्त व्यक्तित्व की विशेषताएँ उभरी हुई प्रतीत होती हैं । उन्होंने अनेक संस्कृत, प्राकृत और गुजराती भाषाओं में ग्रंथों की रचनाएँ की हैं, उन सभी में यह रचना शान्तसुधारस' मुझे श्रेष्ठ रचना लगी है । हालाँकि लोकप्रकाश', हैम लघुप्रक्रिया, नयकर्णिका, इत्यादि अनेक ग्रंथ, उनकी अपूर्व विद्वत्ता का परिचय देते हैं । श्रीपाल रास भी उनकी लोकभोग्य सरस रचना है। हम आज उनके शान्तसुधारस महाकाव्य पर प्रवचनमाला का मंगल प्रारंभ कर रहे हैं । यह ग्रंथरचना उनकी श्रेष्ठ रचना है । १६ भावनाओं के ऊपर उपाध्यायजी ने गहरा चिंतन-मनन-मंथन कर भावनाएँ भावपूर्ण शैली में छंदोबद्ध श्लोकों में एवं गेय काव्यों में प्रवाहित की है । यह सामान्य रचना नहीं है, यह असाधारण रचना है । २५०० वर्ष के संस्कृत-प्राकृत भाषा के इतिहास में ऐसी वैराग्यभरपूर एवं अध्यात्मपूर्ण महाकाव्य की रचना यह एक ही है, अद्वितीय है । मेरा तो कई वर्षों से यह प्रिय स्वाध्याय-ग्रंथ है । अनेक बार मैंने एकान्त में और प्रवचनों में रसप्रचुर स्वर में इन भावनाओं को गाई हैं, उन पर विवेचना की है । अनेक संतप्त एवं शोकाकुल जीवों को, मनुष्यों को शान्ति, समता और प्रसन्नता मिली है । आप लोग भी इस प्रवचनमाला के एक-एक प्रवचन को एकाग्र मन से सुनोगें तो अनुभव करोगे शान्ति का और प्रसन्नता का, समता का और समाधि का। इस ग्रंथ का नाम ही शान्तसधारस' है । ग्रंथकार ने ही स्वयं यह नाम दिया है । शान्तरस की गंगा बह रही है इस ग्रंथ में । वास्तव में इस महाकाव्य में शान्तरस का मधुर और शीतल प्रवाह ही बह रहा है । आवश्यकता है इस महाप्रवाह में स्नान करने की ! सर्वांगीण स्नान करने की । कई घंटों तक इस महाप्रवाह में पड़े रहो। जिस प्रकार प्रचंड ताप के दिनों में शान्त सुधारस : भाग १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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