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को तो परिवार सहित मरवा दिया, परंतु बाद में सभी ब्राह्मणों का वध करवा दिया । सोलह वर्ष तक रौद्रध्यान करता हुआ, ब्रह्मदत्त सातवीं नरक में चला गया । नरक में जाते हुए उस चक्रवर्ती को कोई बचा नहीं पाया । अशरणअनाथ बनकर वह नरकगामी बना ।
जीवन का मोह, जीवन का ममत्व कितना भयानक होता है ? इसलिए ग्रंथकार ने कहा : 'परिहरममतासंगम् ।' ममता - ममत्व - मोह का त्याग करने का उपदेश दिया । चार शरण का स्वीकार, वास्तव में वही मनुष्य कर सकता है, जो जीवन का ममत्व त्याग देता है । संसार के वैषयिक सुखों का मोह त्याग देता है । विश्व के चार श्रेष्ठ शरणभूत तत्त्व :
वैसे तो प्रतिदिन, तीनों काल चार शरण अंगीकार करने के होते हैं :
अरिहंते सरणं पवज्जामि ।
सिद्धे सरणं पवज्जामि ।
साहू सरणं पवज्जामि ।
केवली पन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि ।
अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म विश्व के ये चार श्रेष्ठ शरणभूत तत्त्व
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हैं । जो जीवात्मा उनकी शरण में जाता है, शरण का स्वीकार करता है, वह परम शान्ति, परम सुख पाता है ।
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परंतु शरणभाव के पहले श्रद्धाभाव अपेक्षित होता है । पहले श्रद्धावान् बनना होगा । 'अरिहंत - सिद्ध-साधु और धर्म ही शरणभूत हैं, इनके अलावा कोई भी शरणभूत नहीं है इस विश्व में । इस प्रकार की श्रद्धा हृदय में दृढ़ होनी चाहिए | चाहे प्रलयकाल आ जायं अथवा शिव का तांडवनृत्य हो जायं, चाहे धरा काँपने लगे या आकाश में से आग बरसने लगे, निर्भय बनकर अरिहंत आदि ४ परमतत्त्व की शरण स्वीकार कर सकें ।
श्रद्धावान् निर्भय होता है :
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वैसे निर्भय श्रद्धावान् आत्माओं के कुछ उदाहरणों की याद दिलाता हूँ पहला उदाहरण सीताजी का है । श्रीराम ने सीताजी का बीहड़ जंगल में त्याग करवा दिया था । उस समय उन्होंने श्री नमस्कार महामंत्र की शरण लेकर जीवन-मृत्यु के प्रति उदासीन वृत्तिवाले बने थे ।
जिस समय अयोध्या के बाह्य प्रदेश में सीताजी की अग्निपरीक्षा हुई थी, उस
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शान्त सुधारस : भाग १
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