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________________ पूर्वजन्म के भ्राता - मुनि का मिलन : उपदेश : 'हे राजन्, यह संसार असार है, संसार में कुछ भी सारभूत नहीं है । सारभूत एकमात्र धर्म है । यह शरीर, लक्ष्मी-संपत्ति, स्वामित्व, स्नेही स्वजन सब कुछ चंचल है, अस्थिर है, विनाशी है । राजन्, तुमने बाहर के सभी शत्रुओं को तो जीत लिये, अब मोक्ष पाने के लिए अंतरंग शत्रुओं को भी जीत लो। जिस प्रकार राजहंस, पानी को छोड़कर क्षीर को ग्रहण करता है, वैसे तुम इस संसार को छोड़कर चारित्रधर्म का स्वीकार कर लो !' यह सुनकर ब्रह्मदत्त ने कहा: 'हे मेरे आत्मतुल्य बंधु ! मेरे सद्भाग्य से मुझे आपके दर्शन मिले। यह राज्यश्री आप की ही है, आप स्वेच्छा से विपुल भोगसुख भोगें । तप का फल भोग है । भोगसुख मिलने के बाद अब आपको तप क्यों करना चाहिए ?' मुनिराज ने कहा : 'हे राजन्, मेरे घर में भी कुबेर जैसी संपत्ति थी, विपुल भोगसुख थे, परंतु मैंने उसको तृणवत् तुच्छ समझकर, भवभ्रमण का हेतु समझकर छोड़ दिये । हे राजन्, पुण्यकर्म का क्षय होने पर तुम देवलोक से इस पृथ्वी पर आये हो । यहाँ पुनः पुण्य क्षय होने पर अधोगति में जाना पड़ेगा । भोगसुख भोगने से पुण्यकर्म का क्षय होता है । राजन्, इस आर्यक्षेत्र में और श्रेष्ठ कुल में दुर्लभ मनुष्य जीवन मिला है। इस जीवन में भोगसुख नहीं भोगने हैं, भोगसुख त्याग कर, आत्मसुख पाना है ।' ब्रह्मदत्त के हृदय पर मुनि के उपदेश का कोई असर नहीं हुआ । असर होने का भी नहीं था । वह प्रतिबुद्ध नहीं हुआ । नियाणा के फलस्वरूप उसे चक्रवर्तीपना मिला था न ? उसको 'बोधि' की प्राप्ति होना असंभव होता है। मुनि ने ब्रह्मदत्त को अबोध्य समझ लिया । वहाँ से विहार कर अन्यत्र चले गये । ब्रह्मदत्त के प्रति मध्यस्थभाव धारण कर लिया । न राग, न द्वेष ! मुनिराज को कैवल्य की प्राप्ति होती है। शेष अघाती - भवोप्रगाही कर्मों का क्षय होने पर वे परमपद - मोक्ष पा लेते हैं । ब्रह्मदत्त अंध होता है : मृत्यु : सातवीं नरक में : ब्रह्मदत्त अपने स्त्रीरत्न के साथ विपुल भोगसुख भोगता है । तपश्चर्या का फल भोगता है । परंतु एक दिन एक चरवाहा, ब्रह्मदत्त की दोनों आँखें फोड़ डालता है ! एक ब्राह्मण ने चरवाहे के पास यह काम करवाया था, इसलिए उस ब्राह्मण अशरण भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only १७५ www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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