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- मैं पंडित हूँ, विद्यावान् हूँ, मेरे से कौन धन छीन सकता है ? - मैं सैनिक हूँ, पराक्रमी हूँ, मैं कैसे संपत्ति को जाने दूँगा ? - मैं धर्मात्मा हूँ, धर्म से तो लक्ष्मी आती है, जायेगी कैसे ? - मैं रूपवान् हूँ, मेरा रूप देखकर दुनिया खुश होती है, फिर लक्ष्मी मुझे छोड़कर ___ कैसे जायेगी ?
- मैं सज्जन हूँ, परोपकारी हूँ, लक्ष्मी मेरे पास ही रहेगी। ___ ये सारे विचार मिथ्या हैं, व्यर्थ हैं ! क्योंकि लक्ष्मी कहाँ भी, किसी के भी पास स्थिर नहीं रहती ! कत्थ वि ण रमइ लच्छी। आप कैसे भी हो... कुलवान् हो, पंडित हो, गुणवान् हो, शक्तिशाली हो, धर्मात्मा हो, पराक्रमी हो या रूपवान् हो... आपके पास लक्ष्मी सदाकाल रहनेवाली नहीं है। ___ यह लक्ष्मी जलतरंग की तरह चंचल है । जब तक तुम्हारे पास है, थोड़े दिन, थोड़े वर्ष... तब तक उस लक्ष्मी का सदुपयोग कर लो, भोग लो... अन्यथा उस का नाश तो निश्चित है ! कार्तिकेय स्वामी ने कहा है -
ता भुंजिज्जउ लच्छी, दिज्जउ दाणं दयापहाणेण । जा जलतरंगचवला, दो-तिण्ण दिणाणि चिट्ठेइ ॥ या तो भोग लो, अथवा दयावान् होकर दान दे दो ! जलतरंग जैसी चंचल है लक्ष्मी... दो-तीन दिन टिकनेवाली ही है ! उस पर विश्वास मत करो । ममत्व से लक्ष्मी का संचय करते रहोगे तो, जब लक्ष्मी चली जायेगी तब दुःखी हो जाओगे। लक्ष्मी का संचय नहीं करें :
लक्ष्मी का संचय नहीं करें । क्योंकि इससे - कषाय-भाव बढ़ता है, - मन की मलीनता बढ़ती है, - रौद्र ध्यान भी आ सकता है, - वैर-विरोध बढ़ता है, -- कृपणता से जगत में अपयश होता है ।
यदि लक्ष्मी का संचय नहीं करते हुए दान देते हो तो - - ममत्वभाव घटता है, - मन प्रसन्न रहता है,
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अनित्य भावना
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