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जगत में यश बढ़ता है,
लक्ष्मी जाने पर भी दुःख नहीं होता है
लक्ष्मी का ममत्व तोड़ने के लिए, भूतकालीन और वर्तमानकालीन दानवीरों को स्मृति में लाकर, उनकी अनुमोदना करते रहें ।
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देश की आझादी के लिए अपना सारा धन राणा प्रताप के सामने रख देनेवाले श्रेष्ठी भामाशाह को याद करें ।
जब देश में दुष्काल पड़ा तब श्रेष्ठी जगडुशाह ने अपने अन्नभंडारों को सभी के लिये खोल कर रख दिये थे, उनको याद करें I
राणकपुर में भव्य अद्वितीय मंदिर का निर्माण करने के लिए ९९ क्रोड रूपयों का व्यय करनेवाले धनाशा पोरवाड़ को याद करें ।
वैसे वर्तमान में प्रति वर्ष करीबन १ क्रोड़ रूपयों का सुकृत करनेवाले ऐसे कुछ धार्मिक ट्रस्ट हैं। जो जीवदया, मानवदया आदि के कार्य करते हैं । जो भी छोटा-बड़ा दान करते हैं, उनकी सराहना करते रहोगे, तो आप में भी दान देने की भावना जाग्रत होती । लक्ष्मी का संचय - संग्रह करने की इच्छा नहीं होगी
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एक सम्राट, एक धनपति :
एक सम्राट था, बहुत दान करता था, चारों दिशाओं में उसकी कीर्ति फैली हुआ थी । राजा की प्रजा, राजा के त्याग का, उसकी सादगी का, विनम्रता का गुणगान करती थी । परंतु उस कीर्ति व प्रशंसा से सम्राट का अभिमान और अहंकार बढ़ता गया । परमात्मा से और सद्गुरु से वह बहुत दूर हो गया था । सम्राट दान देता था, यश बढ़ता था, परंतु उसकी आत्मा डूबती जा रही थी । सम्राट की शाखायें फैलती जाती थी, परंतु उसकी जड़े, उसके मूल निर्बल होते जाते थे । दान करता था सम्राट, परंतु दानधर्म नहीं करता था !
उस सम्राट का एक मित्र था, उसके पास बहुत लक्ष्मी थी । उस समय का वह कुबेर ही था । उसकी सागर जैसी तिजोरी में चारों ओर से धन की नदियाँ आकर गिरती थी । परंतु जैसे सम्राट बड़ा दानी था, वैसे उसका धनपति मित्र बड़ा कंजूस था । एक पैसा भी किसी को देता नहीं था । सर्वत्र उसकी कंजूस के रूप में अपकीर्ति फैली थी ।
समय बीतता गया, सम्राट और उसका मित्र धनपति, दोनों वृद्ध हुए । सम्राट
शान्त सुधारस : भाग १
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