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“मैं दानी हूँ इस अभिमान से उछल रहा था, धनपति 'मैं कोई सत्कर्म न कर सका, इस विचार से खिन्न मन से व आत्मग्लानि से पीड़ित था ।
अहंकार और आत्मग्लानि एक द्रष्टि से समान ही हैं। सम्राट अहंकार नहीं छोड़ता है, कंजूस आत्मग्लानि से मुक्त नहीं हो पाता है । दोनों दुःखी हो गये।
परंतु धनपति के एक सद्गुरू थे । धनपति उनकी राय लेने गया । उसने सद्गुरू को कहा: "मैं अशान्त हूँ, जैसे कि आग में जल रहा हूँ, मुझे शान्ति चाहिए ।'
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सद्गुरू ने पूछा : 'तेरे पास इतना धन-वैभव है, शक्ति सामर्थ्य है, फिर भी शान्ति नहीं है ?'
धनपति ने कहा : मुझे अब अनुभव हो गया है कि धन में शान्ति नहीं है, धन की वजह से ही शान्ति नहीं है !'
सद्गुरूने कहा : 'जाओ और अपनी सारी संपत्ति का दान कर दो। जिस से लक्ष्मी छीन ली हो, उस को वापस कर दो, जिसके पास लक्ष्मी नहीं हो, उसको दो... दीन-दरिद्र होकर मेरे पास आना ।'
धनपति गया। सब कुछ दे दिया। कुछ भी उसके पास नहीं रहा, वह सद्गुरू के पास गया और कहा : 'आपके कहे अनुसार निर्धन होकर आप के पास आया अब आप ही शरण हैं ।
सद्गुरू ने कहा : 'तूं ने जिस संपत्ति का त्याग किया, उस त्याग के अभिमान का भी त्याग कर के आना, तब मुझे सच्ची शान्ति मिलेगी । तेरा मित्र सम्राट, बड़ा दानी होते हुए भी क्यों अशान्त है ? उसने लक्ष्मी का त्याग किया, परंतु त्याग के अभिमान का त्याग नहीं किया है ! इसलिए तुम दोनों 'दानाभिमान' से मुक्त बनो । परम शान्ति से तुम मृत्यु का वरण करोगे ! मृत्यु निश्चित है :
यदि आप लक्ष्मी का त्याग स्वेच्छा से नहीं करोगे तो आपको स्वयं को लक्ष्मी का त्याग करके परलोक जाना होगा । महाकाल निरंतर जीवों को भक्ष्य बनाता ही जाता है ! वह कभी तृप्त नहीं होता है ! यही बात उपाध्यायजी कहते हैं कलयन्नविरतं, जंगमाजंगमं
जगदहो नैव तृप्यति कृतान्तः ।
अनित्य भावना
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