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________________ अनित्य भावना का उपसंहार करते हुए उपाध्यायश्री विनयविजयजी गाते हैं । नित्यमेकं चिदानन्दयमात्मनो रुपमभिरुप्य सुखमनुभवेयम् । प्रशमरसनवसुधापानविनयोत्सवो भवतु सततं सतामिह भवेऽयम् ॥९॥ 'सब कुछ अनित्य, क्षणिक और क्षणभंगुर है, तब नित्य क्या है ? शाश्वत् क्या है ? आनन्दमय क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है : 'नित्य और चिदानन्दमय एक मात्र आत्मा है ! उस आत्मा के स्वरूप की पहचान कर लो और स्वाभाविक आत्मसुख का अनुभव करें । इस अनित्य भावना के चिंतन से 'प्रशमरस' उत्पन्न होगा भीतर में, उस प्रशम-रस का अभिनव अमृतपान करते रहो ! अपर्व आनंदोत्सव, परमानंदोत्सव तुम्हारे भीतर घटित होगा । ऐसा उत्सव सत्पुरुषों को इसी जन्म में प्राप्त हो ! आत्मस्वरूप की पहचान कर लो : .... 'जो अनित्य, क्षणिक है वैसे शरीर, यौवन, आयुष्य, वैषयिक सुख, स्वजनसंबंध, संपत्ति... की पहचान कर लो; उसका ममत्व, आसक्ति, राग-मोह छूट गया... अब ऐसे नित्य-शाश्वत् तत्त्व से ममत्व जोड़ना है कि जिससे भीतर में अपूर्व आनंदोत्सव घटित हो जायं ! परमानन्द की अनुभूति हो जायं । वैसा एक ही आत्मतत्त्व है । अपनी देह में ही वह आत्मतत्त्व रहा हुआ है ? भीतर में ही है । भीतर में देखने के लिए ध्यान आना चाहिए । जो ध्यान नहीं कर सकते वे अपने ही शरीर में रही हुई परमानन्दमय, निर्विकार, निरामय आत्मा को देख नहीं सकते । पहचान नहीं कर सकते । ध्यानमग्न योगीपुरुषों ने जो आत्मा की पहचान पायी है, वह इस तरह है - अनन्तसुखसंपन्नं, ज्ञानामृत-पयोधरं । अनन्तवीर्यसंपन्नं, दर्शनं परमात्मनः ॥ निर्विकारं निराहारं, सर्वसंगविवर्जितं । परमानन्दसंपन्नं - शुद्ध चैतन्यलक्षणम् ॥ आनन्दरूपं, परमात्मतत्त्वं समस्त संकल्पविकल्पमुक्तम् । | अनित्य भावना १२९ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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