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कितना भी श्रेष्ठ हो, उत्तम हो, परंतु यदि उपादान परिपक्व नहीं होता है, तो फलप्राप्ति नहीं होती है । उपादान होता है आत्मा । आत्मा की भवस्थिति परिपक्व नहीं होती है, तो निमित्त का असर नहीं होता है । राजा संजय की आत्मा की योग्यता परिपक्व हो गई थी।
सभा में से : वह तो मांसाहारी था, शिकारी था...रसलोलुप था...!
महाराजश्री : आप लोग बाल जीव हैं । आप दूसरों की बाह्य क्रियाएँ देखकर उसकी योग्यता-अयोग्यता का निर्णय करते हैं । ज्ञानी पुरुष, कभी भी दूसरे जीवों के बाह्य क्रिया-कलापों को देखकर उनकी योग्यता-अयोग्यता का निर्णय नहीं करते। वे तो उनकी आत्मदशा देखते हैं । वे उनके भीतर देखते हैं ! जैसे भूस्तरशास्त्री मिट्टी में सोना देखते हैं ! और अज्ञानी पित्तल में सोना देखते हैं ! वैसे आप लोग धर्मक्रिया करनेवालों को मोक्षगामी मान लेते हो और पापक्रिया करनेवालों को नरकगामी मान लेते हो ! ज्ञानी पुरुष ऐसा नहीं मानते ! वे उपादानभूत आत्मा की भीतरी अवस्था को देखते हैं । संभव होता है कि इसी भव में मोक्ष पानेवाले जीवों की क्रिया पाप की हो और अनंत संसार में भटकनेवाले जीव की क्रिया धर्म की हो ! वह धर्मक्रिया उसको मुक्ति नहीं दिलाती है ! धर्मक्रिया करनेवाले सावधान ! ___ इसलिए मैं कई बार आपको कहता हूँ कि आप धर्मक्रियाएँ करके अभिमान नहीं करें। धर्मक्रिया करने मात्र से आपकी मुक्ति निश्चित नहीं होती है । आप लोग मेरे निम्न प्रश्नों के उत्तर देना - १. क्या आपको पापक्रियाओं के प्रति नफरत हुई है ? २. पापक्रिया करनेवालों के प्रति भाव-करुणा होती है ? ३. स्वयं पापक्रिया करने पर पश्चात्ताप होता है ? ४. पूर्ण जागृति के साथ उपयोगपूर्वक प्रतिक्रमण करते हो ? ५. जो भी धर्मक्रिया आप करते हो, करते समय आनंद और करने के बाद
अनुमोदना का भाव जगता है ? ६. जो दूसरे लोग आप से अच्छी धर्मक्रिया करते हैं, उनकी प्रशंसा करते हो
क्या ? उनकी प्रशंसा सुनकर प्रमोदभाव आता है क्या ? ७. पापक्रिया करने के बाद हृदय में दुःख होता है क्या ? ८. सभी पापों का कारण संसारवास है - यह जिनवचन हृदयस्थ हुआ है क्या ? ९. संसारत्याग कर कब संयमी श्रमण बनूँ - ऐसी भावना जगती है क्या ?
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संसार भावना
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