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दूसरी बात, पौद्गलिक-वैषयिक सुख कितने भी भोगें, सदैव भोगते रहें, मन और इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होंगी । जिस प्रकार आग में घी अथवा मधु की आहुति देने पर आग शांत नहीं होती है, परंतु ज्यादा प्रज्वलित होती है । 'पुद्गल-गीता में कहा हैं -
पुद्गल-सुख सेवत अहनिश, मन-इन्द्रिय न धावे,
जिम घृत-मधु-आहूति देतां, अग्नि शांत नवि थावे । आगे चलकर चिदानंदजी ने कहा है -
जिम जिम अधिक विषयसुख सेवे, तिम तिम तृष्णा दीपे,
जिम अपेय जल पान कीया थी तृषा कहो किम छीपे ? 'अपेय जल यानी सागर का खारा पानी । सागर का पानी पीने से तृषा छिपती नहीं है, परंतु ज्यादा बढ़ती है, वैसे विषयसुख भोगने से, ज्यादा से ज्यादा भोगने से भोग-तृष्णा बढ़ती है, ज्यादा प्रदीप्त होती है। परंतु पौद्गलिक सुख में आसक्त जीव यह मार्मिक बात नहीं जानता है ! जन्मांध जीव सूर्य का तेज कैसे पहचान सकता है ? यह बात चिदानन्दजी कहते हैं -
पौद्गलिक सुखना आस्वादी, एह मरम नवि जाणे, जिम जात्यंध पुरुष दिनकरनें तेज नवि पहिचाणे । जीवों को इन्द्रियजन्य वैषयिक सुख अच्छे लगते हैं, प्रिय लगते हैं, परंतु उन सखों के भोगोपभोग के परिणामों का वे जीव, अज्ञानी जीव विचार नहीं कर सकते । अज्ञानी जीवों को परिणामों का ज्ञान ही कहाँ होता है ? उनको तो वर्तमानकाल का ही विचार होता है । अभी सुख मिलता है ? बस, कल का विचार नहीं करना है !'
इन्द्रियजनित विषयरस सेवत, वर्तमान सुख ठाणे,
पण किंपाक तणा फलनी परे, नहीं विपाक तस जाणे । 'किंपाक' नाम का जंगली फल खाने में मीठा होता है, परंतु उसका परिणाम मौत होती है ! वैसे वैषयिक सुख भोगने में अच्छे लगते हैं, परंतु जनम-जनम वे दुःखदायी होते हैं।
ऐसा समझकर पौद्गलिक-वैषयिक सुखों से विमुख होना चाहिए, विरक्त होना चाहिए और आत्मभाव के सन्मुख होना चाहिए ।
एहवं जाणी विषयसुखसेंती, विमुखस्प नित रहीए,
त्रिकरण योगे शुद्धभावधर, भेद यथारथ लहीये । | २५०
शान्त सुधारस : भाग १
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