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विकासकाल की ये प्रारंभिक अवस्थाएँ होती हैं । वहाँ से पुद्गल-भाव का रागरस जीव के साथ लगा हुआ है ! कितना प्रगाढ़ और तीव्र होगा यह राग-रस ? इस पुद्गल-राग को मिटाने का भव्य पुरुषार्थ इस जीवन में करने का है ।
लही क्षयोपशम मतिज्ञान को, पंचेन्द्रिय जब लाधी, विषयासक्त राग पुद्गलथी धार नरकगति साधी । ताडन-मारन छेदन-भेदन, वेदना बहुविध पायी, क्षेत्रवेदना, परमाधामीकृत विधविध है दरसायी । पुद्गलरागे नरकवेदना वार अनंती वेदी, पुण्यसंयोगे नरभव लाधो, अशुभ युगलगति भेदी । वनस्पतिकाय में से दूसरी एकेन्द्रिय जातियों में जीव ने जन्म-मृत्यु किये हैं ! पृथ्वीकाय में, अप्काय में, वायुकाय में, तेउकाय में...। बाद में बेइन्दिय में, तेइन्द्रिय में, चउरिंद्रिय में और पंचेन्द्रिय में जीव आया है । बड़ी मुश्किल से पंचेन्द्रियत्व मिलता है ! परंतु पुद्गल-राग' के कारण, विषयासक्ति के कारण जीव नरकगति में उत्पन्न होता है ! नरकगति में कैसे कैसे दुःख होते हैं, संसारभावना के प्रवचनों में आपने सुना है न ? ताड़न, मारन और छेदन-भेदन होता रहता है । कैसी घोर वेदनाएँ वहाँ जीवों को सहनी पड़ती हैं ? इसका कारण होता है पुद्गल-राग ! जीव ने नरक की वेदना एक-दो बार सही है, ऐसा मत समझें, अनंत बार सही है ! वार अनंती वेदी !'
नरक में अनिच्छा से दुःख सहने से जो कर्मनिर्जरा होती है, उसको अकाम निर्जरा कहते हैं । उस कर्मनिर्जरा के कारण जीव की उन्नति होती है, उसको मनुष्य-जन्म मिलता है । नरकगति और तिर्यंचगति से वह बाहर निकल जाता है । मनुष्यगति, देवगति से भी ज्यादा अच्छी बतायी है जिनेश्वर भगवंतों ने । ऐसी अच्छी - श्रेष्ठ मनुष्यगति पाने के बाद क्यों पुद्गलरागी-विषयरागी बन कर मनुष्य-जीवन को बरबाद करता है ?
विषयासक्त राग पुद्गल को धरी नरजन्म गमावे,
काग उडावणकाज विप्र जिम, डार मणि पछतावे । अज्ञनी ब्राह्मण ने कौओं को उड़ाने के लिए रत्नों को फेंक दिये थे न ? बाद में उसको जब मालुम हुआ कि मैंने पत्थर समझकर रत्नों को फेंक दिये हैं, तब उसको घोर पछतावा हुआ था ! वैसे पुद्गल-राग से, वैषयिक सुखों के राग से मनुष्य-जीवन गँवा देने के बाद अपने को पछतावा होगा !
एकत्व-भावना
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