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________________ है, ऐसे सत्पुरुष का संयोग पूर्वोपार्जित पुण्य से मिलता है । माधोजी को वैसे सत्पुरुष मिले । उनकी वाणी, स्पर्श और दृष्टि तीनों माधोजी पर गिरे ! माधोजी ने उत्तर नहीं दिया। वह महंत की ओर एकटक देख रहा था। महंत ने पुनः धीर-गंभीर आवाज में कहा : बच्चा, कब तक यह पामर मनुष्य का काम करता रहेगा? तेरे पास भी ऐसी ही माणकी घोड़ी है न ? फिर भी तुझे तष्णा सता रही है न ? अच्छा, तो ले जा घोडी को...छोड ले । परंतु माधोजी तो बूत जैसा ही खड़ा रहा । प्रभात का चन्द्र पृथ्वी पर अपनी किरणों का अमृत बरसा रहा था । वयोवृद्ध महंत अपने पवित्र अंतरात्मारूप चन्द्र द्वारा वाणी और दृष्टि से माधोजी के ऊपर अमृत बरसा रहे थे और माधोजी की आत्मा के ऊपर से मोह-माया के आवरण उतार रहे थे । उन्होंने माधोजी को पूछा : तेरा नाम माधोजी है न ?' माधोजी ने अपना मस्तक झुकाकर हाँ कह दिया। महंत और जोर से हँसने लगे-बोलने लगे : 'माधोजी ! माधव, मेरा माधव ! माधव ! मोहपाश क्यों छूटे ? महंत ने अपना दाहिना हाथ लंबा किया । अपने हाथ में माधोजी का हाथ लिया । उसको अपने तंबू में ले गये । अग्नि की धूनी में से राख लेकर माधोजी के ललाट में लगायी और एक काले रंग की गोल वस्तु लेकर उसके मुँह में रख दी। अपने हाथ पर ग्यारह रुद्राक्ष की जो माला बंधी हुई थी, वह माधोजी के दाहिने हाथ पर बाँध दी और धीर-गंभीर आवाज में उन्होंने माधोजी को कहा - जाओ बेटे, तप करो। यह जन्म तेरा अंतिम जन्म है। परमात्म-स्वरूप में तेरा लय हो! इतना बोलकर, महंत ने माधोजी का हाथ पकड़ा, तालाब के किनारे पर ले गये। पीपली गाँव की ओर खड़ा रखकर, उसकी पीठ पर एक धब्बा लगा दिया और माधोजी पीपली की ओर चलने लगा। उसका मोह का आवरण टूट गया था। जरा सोचें । माधोजी गया था घोड़ी की चोरी करने । और वहाँ उसको एक भारतीय संत पुरुष का संपर्क हो गया ! वे भी करुणावंत संत ! डाकू को साधु बनाने की भावनावाले वे संत थे ! उस संत का कैसा अनुपम व्यक्तित्व होगा । प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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