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यस्याशयं श्रुतकृतातिशयं विवेकपीयूषवर्षरमणीयरमं श्रयन्ते । सद्भावनासुरलता न हि तस्य दूरे,
लोकोत्तरप्रशमसौख्यफलप्रसूति ॥६॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस' की प्रस्तावना में कहते हैं : उसी अन्तःकरण में ये शुभ-सुंदर भावनायें रहती हैं कि जो अन्तःकरण सम्यग् ज्ञान के अभ्यास से उन्नत बना हो और विवेक-अमृत की वृष्टि से मृदु एवं सुशोभित बना हो । ग्रंथ की प्रस्तावना के ७-८ श्लोक में उन्होने बारह भावनाओं के नाम बताये हैं :
अनित्यत्वाशरणते भवमेकत्वमन्यताम्, अशौचमाश्रवं चात्मन, संवरं परिभावय ॥७॥ कर्मणो निर्जरां धर्मसूक्ततां लोकपद्धति,
बोधिदुर्लभतामेतां, भावयन् मुच्यभ सेवात् ॥८॥ १. अनित्यभावना, २. अशरण भावना, ३. संसार भावना, ४. एकत्व भावना, ५. अन्यत्व भावना, ६. अशुचिभावना, ७. आश्रवभावना, ८. संवरभावना, ९. कर्मनिर्जरा भावना, १०. धर्मसुकृत भावना, ११. लोकस्वरुप भावना और १२. बोधिदुर्लभ भावना। भवप्रपंच से मुक्त होने के लिए, प्रतिदिन ईन भावनाओं से पुनःपुनः भावित होते रहो ! भावनाओं का स्थान अंतःकरण : __ भावनाओं का उत्पत्ति स्थान अन्तःकरण है, चित्त है । इसलिए अन्तःकरण शुद्ध, मृदु और सुशोभित रहना आवश्यक है । चित्त में आर्त और रौद्र विचार नहीं आने चाहिए, नहीं रहने चाहिए । परंतु जब तक मनुष्य दौड़ता रहता है, कोई धन के पीछे, कोई यश के पीछे, कोई पद-प्रतिष्ठा के पीछे... कोई स्वर्ग के पीछे... तब तक आर्त-रौद्र विचारों से चित्त मुक्त नहीं रह सकेगा। चाहे मनुष्य मंदिरों में जायें या तीर्थों की यात्रा करें ! मनुष्य का जीवन ऐसी दौड़ में ही पूर्ण हो जाता है, हाथ में कुछ आता नहीं है । इसलिए पहले यह सोच लो कि कहाँ जाना है ? क्या पाना है ? किस लिए जाना है ? और, यह भी सोच लेना चाहिए कि जहाँ पहुँचना चाहते हैं, जो प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए जीवन में इतना श्रम उठाना, इतनी मुश्किलियाँ सहना योग्य-उचित है क्या ?
प्रस्तावना
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