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________________ | मैंने मृगों का शिकार किया है । आपको भी कष्ट पहुँचाया है । भगवन्, मुझे अभयवचन देने की कृपा करें । मुनिराज ने अपना धर्मध्यान पूर्ण किया और कृपापूर्ण दृष्टि से राजा की ओर देखा । उन्होंने कहा : अभओ पत्थिवा तुब्भं अभयदाया भवाहि अ 1 अणिच्चे जीवलोगंमि किं हिंसा ए पसज्जसि ? 11 राजन्, मेरी ओर से तुझे अभय है और तू भी अभयदाता हो ! यह जीवलोकयह संसार अनित्य है, तू क्यों हिंसा में प्रवृत्त होता है ? जया सव्वं परिच्चज्ज, गंतव्वमवसस्स ते अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं रज्जंमि पसज्जसि ? ॥ राजन्, सब कुछ छोड़कर जीव को एक दिन अवश्य जाना ही पड़ता है, तुझे भी जाना पड़ेगा; तो फिर इस अनित्य संसार में, राज्य का मोह क्यों ? जीविअं चेव स्वं च, विज्जुसंपायचंचलं जत्थ तं मुज्झसी रायं, पेच्चत्थं नावबुज्झसे ? 1 । राजन्, यह जीवन... यह रूप... बिजली की चमक जैसा मान, जिसमें तू मोहासक्त बना है 1 तू परलोक का विचार क्यों नहीं करता है ? दाराणि अ सुआ चेव मित्ता य तहा बंधवा । जीवंतमणुजीवंति मयं नाणुव्वयंति अ 11 राजन्, पत्नी, पुत्र, मित्र और बांधव - ये सभी तू जीवित है तब तक हैं, मृत्यु होने पर ये साथ नहीं चलेंगे । फिर ये मेरे स्वजन ऐसा ममत्व क्यों ? बंधूरायं 11 निहरंति मयं पुत्ता, पिअरं परमदुक्खि आ पिअरोऽवि तहा पुत्ते पुत्ते तवं चरे राजन्, संसार की कैसी असारता है ! मृत पिता को पुत्र घर से बाहर निकाल देते हैं और पिता भी मृत पुत्र, मृत बंधु वगैरह को घर से बाहर निकाल देते हैं । इसलिए राजन्, तपश्चर्या करें । संयम ग्रहण करें । तओ तेणऽज्जिए दव्वे दारे अ परिरक्खिए । कीलंतन्ने नरा रायं हठ्ठतुट्ठा अलंकिया राजन्, धनार्जन करनेवाले मनुष्य की मृत्यु होने पर, दूसरे लोग उस धन से और उस स्त्री वगैरह से मौज-मजा करते हैं। शरीर को सजाकर बड़े खुश होकर संसार भावना २२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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