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मरण करते रहे, दुःख सहते रहे । ___ यह अपनी ही अनन्त जन्मों की कहानी है । कैसे-कैसे जन्म हमने पाये...कैसेकैसे घोर दुःख पाये ? ज्ञानदृष्टि से सोचना है । मन मिलने के बाद दुःख बढ़ने लगे । सुख के आभास मिलने लगे ।
- तिर्यंच-पंचेन्द्रिय की चार लाख योनि में जन्म-मरण किये, - मनुष्य की चौदह लाख योनि में भी जन्म-मरण किये, - नरक की चार लाख योनि में जन्म-मरण किये, और - देवों की भी चार लाख योनि में जन्म-मरण किये। हाँ, देवलोक में भी हमारे जीव ने देवत्व पाया था और वहाँ के श्रेष्ठ भौतिक सुख पाये थे, परंतु वे सुख भी शाश्वत् नहीं थे, वहाँ का जन्म समाप्त होने पर वहाँ के सुख भी समाप्त हो गये । सुख मिलने के बाद चले जाते हैं, तब जीव बहुत ज्यादा दुःखी होता है ।
वैसे एकेन्द्रिय अवस्था की कितनी योनियों में हमारे जीव ने कितने जन्ममरण किये हैं, जानते हो क्या ?
- पृथ्वीकाय की सात लाख योनि है, - अप्काय की सात लाख योनि है, - तेउकाय की सात लाख योनि है, - वायुकाय की सात लाख योनि है, - प्रत्येक वनस्पतिकाय की १० लाख योनि है, और - साधारण वनस्पतिकाय की १४ लाख योनि है । इन सभी योनियों में हमारी आत्मा ने अनेक बार जन्म-मरण किये हैं। जरा शान्ति से सोचना । स्वस्थ दिमाग से सोचना । ऐसी समग्र जीवनसृष्टि में हम भटके हैं, घोर दुःख पाये हैं...और आज भी हम भटक रहे हैं । अभी तक ऐसा सुख नहीं मिला कि जो सुख शाश्वत् हो, अविनाशी हो।
वैसे एकेन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को सुख मिलता ही नहीं, सुखाभास थोड़ा सा मिल जायें तो ठीक है । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को नरक में सुख का अंश भी नहीं मिलता । तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों को कुछ गाय, भैंस, हाथी-घोड़ा आदि कुछ पशुओं को छोड़कर अन्य पशुओं को प्रायः सुख नहीं मिलता है । पशु-पक्षियों को विशेषकर भयं ज्यादा रहता है । और जहाँ भय होता है वहाँ सुखानुभव नहीं हो सकता है । पक्षियों को भी भय सताता रहता है । पालतू पशु
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प्रस्तावना
३५ ।
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