SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शास्त्र बना रहे थे, परंतु इस ग्रंथ की रचना का प्रयोजन क्या था ? प्रेरणा कौन सी थी ? तदेतत् ब्रह्मचर्येण... यानी ब्रह्मचर्य का पालन परम समाधि में चित्त को एकाग्र कर, लोकयात्रा के लिए मैने इस कामसूत्र नाम के ग्रंथ की रचना की है । इस से राग-काम बढ़े, वैसी इसकी रचना नहीं है । धर्म-अर्थ और काम, तीनों पुरूषार्थ का पोषक यह शास्त्र है । इस शास्त्र का तत्त्वज्ञ, जितेन्द्रिय ही होता है । इन्द्रिय सुख का यह शास्त्र, इन्द्रियों का गुलाम बनने के लिए नहीं, स्वामी बनने के लिए, मित्र बनने के लिए है । रचना करनेवाले ऋषि ने इन्द्रिय सुख के नशे में शास्त्र रचना नहीं की है, परंतु संपूर्ण स्वस्थता से, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एवं चित्त की समाधि - अवस्था में कामशास्त्र की रचना की है ! ऐसी स्वस्थता और परिपक्वता, पश्चिम की सभ्यता में रूढ़ बनी हुई सेक्स विषयक मान्यताओं में एवं शास्त्रों में बिल्कुल देखने में नहीं आती है । ईन में सर्वांगी द्रष्टि का अभाव दिखता है । सेक्स विषयक पश्चिम की विकृत विचारधारा : __ पश्चिम के देशों में जो कामशास्त्र व सिद्धान्त बनाये गये, उन में मात्र अर्थ और काम, दो पर ही ध्यान रहा, धर्म और मोक्ष-पुरूषार्थ की कल्पना भी उनको नहीं थी । संभव है कि धर्म और मोक्ष की बात को फालतू समझकर, उसकी उपेक्षा कर दी गई । पश्चिम के कामशास्त्रों की, सिद्धान्तों की रचना करनेवाले कुछ लोग तो कंडिशन्ड मानसवाले, संकीर्ण खयालवाले और स्वयं जातीय विकृति से उत्पीडित थे। कहते हैं कि पश्चिम में सेक्सोलोजी की नींव डालनेवाला हेवलोक एलिस स्वयं, कुछ विशेष जातीय व्यवहारों में एब्नोरमल था । इस सेक्स के विषय में जिसको पश्चिम में और पूर्व में भी पथ-प्रदर्शक मानते हैं वह फ्रोइड भी बहुत स्वकेन्द्री था, स्वच्छन्दी मनोवृत्तिवाल, अति महत्वाकांक्षी, विरोधियों के प्रति असहिष्णु और प्रशंसा से खुश होनेवाला था। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि पश्चिम के सभी कामशास्त्र एवं सिद्धांतों का ध्येय जितेन्द्रियता सिद्ध करने का तो नहीं ही था । फ्रोइड ने दुर्भाग्य से अपना संपूर्ण ध्यान कामवृत्ति पर ही केन्द्रित कर दिया था । यत्र-तत्र-सर्वत्र उसको कामवृत्ति ही दिखायी दी ! सभी मानवीय संबंधों में, उसने डायरेक्ट' अथवा 'इन्डायरेक्ट', जाग्रत या सुषुप्त दशा में, जातीय-यौन वृत्ति का ही प्रतिपादन किया। उसने वहाँ तक तक दिया कि पिता को पुत्री ज्यादा प्रिय होती है और | अनित्य भावना ११९ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy