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में वे निमग्न हो गये थे। शादी के बाद तूर्त ही कार्य में वे लग गये थे । प्रतिदिन पत्नी समय पर भोजन लाती, संध्या होने पर दीपक जलाती, परंतु पंडितजी को सिवाय ग्रंथ रचना, और कोई भान नहीं था । जब ग्रंथरचना पूर्ण हुई, शाम को पत्नी दीया लेकर आयी, पंडितजी ने उसके सामने देखा और पूछा
'सुंदरी, तू कौन है ?'
'मैं आप की धर्मपत्नी हूँ... रोजाना शाम को दीया लाकर मैं रखती हूँ । वाचस्पति मिश्र लज्जित हो गये । १६ वर्ष तक उस स्त्री ने उनकी और उनके ग्रंथ की मूक सेवा की थी। पंडितजी नतमस्तक हो गये । पत्नी का नाम भामती था, उन्होने ग्रंथ का नाम 'भामती' रख दिया । ग्रंथ पत्नी को समर्पित किया ।
पंडितजी अपनी ज्ञानोपासना में निमग्न थे । अपनी समग्र प्राणशक्ति, निःशेष उर्जा, उसी में समाविष्ट हो गई थी । वह उनका सहज ब्रह्मचर्य था ! उनका वह सहज इन्द्रियनिग्रह था ।
सही और गलत जीवनद्रष्टि :
मूल प्रश्न है जीवन विषयक द्रष्टि का, फिलोसोफी का, जीवनदर्शन का । एक द्रष्टांत से यह बात समझाता हूँ । अपने महान् पूर्वजों ने हिमालय, गिरनार, आबू, शत्रुंजय, सम्मेतशिखर जैसे पहाड़ों पर, गिरिप्रदेशों में जहाँ जहाँ रमणीयता देखी वहाँ-वहाँ देवमंदिर बनाये, यात्राधाम बनाये ! जब कि अंग्रेज भारत में आये, उन्होंने वहाँ 'हिल - स्टेशन' बनाये ! मंदिर के साथ मंदिर के सहचारी भाव आये, हिल स्टेशन के साथ हिल स्टेशन के सहचारी भाव आये ! यात्राधामों ने अपना पवित्र वातावरण खड़ा किया, हिलस्टेशनों ने अपनी दुनिया खड़ी कर दी ! हिल स्टेशन ने वहाँ की प्रजा को विलास से स्वच्छन्दी एवं आमोद-प्रमोद से गंदी - मलिन बना दी । यह जो अंतर है, भेद है, वह जीवन के प्रति अभिगम का, द्रष्टि का अंतर है ।
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वैसे ही सेक्स के प्रति जो अभिगम है, उस में भी जीवन द्रष्टि ही, जीवनदर्शन महत्त्वपूर्ण रहा है । भारतीय संस्कृति में, कहा गया है - 'धर्मार्थकामेभ्यो नमः ।' वात्सायन ने अपने 'कामसूत्र' के मंगलाचरण में धर्म-अर्थ- काम पुरूषार्थ को नमस्कार किया है । कामशास्त्रो में स्वस्थता है, पुख्तता है और परिपक्वता है । उस में द्रष्ट्रि एकांगी नहीं है, सर्वांगी है। खयाल समग्र जीवन का है । वात्सायन 'कामशास्त्र' की रचना कर रहे थे, कामानंद किस तरह पाना, उसका
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शान्त सुधारस : भाग १
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