SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्प और जीवन चंचल है : __ सभी जीवों को अपना जीवन प्रिय होता है और यह तो राजा था, रूपवान था, इसलिए रूप भी प्रिय होता है । मुनिराज ने रूप और जीवन, दोनों की चंचलताअस्थिरता-क्षणिकता बता दी । रूप शाश्वत् नहीं है, जीवन शाश्वत् नहीं है । रूप कभी भी करूप बन सकता है, जीवन का कभी भी अंत आ सकता है। रूप की चंचलता को मन-मस्तिष्क में बनाये रखने के लिए सनत्कुमार चक्रवर्ती का दृष्टांत याद रखो । स्नान करते समय देवों को भी विस्मित कर देनेवाला रूप, जब चक्रवर्ती राजसभा में जाकर बैठा, तब कुरूप बन गया था ! उसके शरीर में सोलह प्रकार के रोग पैदा हो गये थे ! जीवन की चंचलता तो होस्पिटलों में और स्मशान-गृहों में प्रतिदिन देखने मिलेगी । अखबारों में पढ़ते रहते हो न ? रूप और जीवन की क्षणिकता का विचार, आपको परलोक का विचार करने के लिए प्रेरित करेगा। मृत्यु के बाद मैं किस गति में जाऊँगा, यह विचार प्रतिदिन करना चाहिए । परलोक का विचार मनुष्य को पाप करने से रोकता है। पाप करने से दुर्गति में जाना पड़ता है । नरक और तिर्यंचगति में जन्म लेना पड़ता है, यह बात जो मनुष्य जानता है, वह पापों से बचकर जीवन जीयेगा। स्वजन साथ नहीं चलेंगे। जिन स्वजनों के लिए, स्वजनप्रेम से, स्वजनमोह से प्रेरित होकर जीव पाप करता है अथवा अपने स्वार्थ से स्वजनों के साथ राग-द्वेष करता है, वे स्वजनपत्नी, पुत्र, भाई-बहन-मित्र वगैरह जीव की मृत्यु के बाद परलोक में साथ नहीं चलते । जिन स्वजनों के कारण जीव पाप करता है, दुष्कर्म करता है, वे स्वजन, जब पापों के फल जीव को भोगने पड़ते हैं, तब दुःख बँटाते नहीं हैं। यह बात अच्छी तरह समझने के लिए अभयकुमार और कालसौकरिक कसाई के पुत्र सुलस की कहानी पढ़ना। अभयकुमार ने यह बात सुलस को प्रयोगात्मक ढंग से समझायी थी। मृत्यु के बाद सारे रिश्ते समाप्त : __ स्वजन और परिजनों का स्नेह-संबंध, आदान-प्रदान वगैरह तब तक रहता है, जब तक मृत्यु नहीं आती ! पिता की मृत्यु हो गई, पुत्र पिता के मृतदेह को घर से बाहर निकाल देता है, पिता का कितना भी प्यार हो, पिता मर गये, बस प्यार भी मर गया ! वैसे पत्र भी कितना प्यारा था। परंतु मर गया, पिता पुत्र [ संसार भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy