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अभयदाता बनें :
सर्वप्रथम बात कही अभयदान की ! स्वयं मुनिराज ने राजा को अभय किया और प्रेरणा भी अभयदान की दी । क्योंकि वह उस वन में शिकार करने आया था । आसपास हजारों निर्दोष मृग खड़े थे । जैसे वे मुनिराज से अभय की याचना कर रहे हों ! उनको भय था राजा से । मुनिराज ने राजा को अभयदान का पहला धर्म बताया । 'त मेरे से अभय चाहता है, वैसे ये मग तेरे से अभय चाहते हैं ! सभी जीव जीवन चाहते हैं, मृत्यु कोई नहीं चाहता है । और त्रस-स्थावर सभी जीवों को अभयदान, मात्र महाव्रतधारी संयमी आत्मा ही दे सकती है । इस दृष्टि से मुनिराज ने राजा को साधुधर्म की ओर इशारा कर दिया है । आगे जाकर स्पष्ट शब्दों में साधुधर्म की प्रेरणा दी है । यह जीवलोक अनित्य है : __ जीवलोक की अनित्यता...असारता उन्होंने दो गाथा में कही है । क्योंकि सामने राजा था । राजा के पास भरपूर भौतिक सुख होते हैं और सुखों के बीच जीव को संसार अनित्य नहीं लगता । संसार की असारता का विचार भी नहीं
आता ! इसलिए मुनिराज ने राजा को कहा : क्षणिक...अल्पकालीन जीवन में तू हिंसा में क्यों प्रवृत्ति करता है ? जीवहिंसा से परलोक में जीव तीव्र शारीरिकमानसिक दुःख पाता है ? सदैव याद रखना चाहिए कि यह जीवलोक, यह संसार असार है । इसमें जीव, किसी भी गति में, किसी भी योनि में स्थिर नहीं है । जन्म-मृत्यु का अनादिकालीन चक्र फिरता ही रहता है । वैसे, संसार में सुखदुःख का भी चक्र चलता ही रहता है। सब कुछ छोड़कर जाना है :
मुनिराज ने तीसरी बात भी चोटदार कही है । याद रखो - 'सब कुछ छोड़कर जाना है ! राज्य को भी छोड़कर जाना है ! एकान्त क्षणों में अपने मन की साक्षी से प्रतिदिन चिंतन करने की बात कह दी है - 'मुझे सब कुछ छोड़कर जाना है । जिसको एक दिन अवश्य छोड़कर जाना है, उस पर ममत्व क्यों करना ? उसको अपना क्यों मानना ? नहीं मानना चाहिए । जब भी कोई इष्टप्रिय वस्तु का त्याग करने में मन आनाकानी करता हो तब इस सूत्र को याद करना - सब कुछ छोड़कर जाना है !
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शान्त सुधारस : भाग १
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