________________
पूरण-गलन धर्मथी पुद्गल नाम जिणंद वखाणे, केवल विण परजाय अनंती, चार ज्ञान नवि जाणे । शुभथी अशुभ, अशुभथी शुभ, मूल स्वभावे थाय,
धर्मपालटण पुद्गलनो इम सद्गुरु दीयो बताय । काव्य में और सरल भाषा में पुद्गल का परिचय करा दिया है न ? समझ गये न ? फिर भी समझाता हूँ गद्य में ! -- जो वस्तु पानी में गल जाती है, - जो वस्तु अग्नि में जल जाती है, उसको पुद्गल जानना । हे चेतन, पुद्गल-भाव में हर्ष-शोक नहीं करना ।
- जो छाया दिखती है, जो प्रकाश दिखता है, जो आकृति दिखती है, ये सब पुद्गल के पर्याय होते हैं। पुद्गल का धर्म होता है सड़ना, गिरना और नाश होना ! 'सड़न-पड़न और विध्वंसन पुद्गल की नियति है ! वैसे जो दो पिंड इकट्ठे होते हैं और कालक्रम से बिखर जाते हैं, जिसको जीवात्मा अपनी आँखों से, चर्मदृष्टि से देखता है, वह सब पुद्गल होता है ! आत्मा जो होती है वह
आँखों से, चर्मदृष्टि से नहीं दिखती है ! __जो बढ़ता है और घटता है, जिसका पूरण-गलन स्वभाव होता है, वह पुद्गल होता है । पुद्गल के अनंत पर्याय होते हैं और वे पर्याय केवलज्ञानी ही जान सकते हैं। __ पुद्गल परिवर्तनशील होते हैं । शुभ का अशुभ और अशुभ का शुभ होता है ! पुद्गल-भाव स्थिर नहीं रहते । इसलिए उन पर राग-द्वेष नहीं करने चाहिए । इनके कारण हर्ष-शोक नहीं करने चाहिए । आत्मविचार - चन्दनवृक्ष की शीतल हवा :
पुद्गल-राग का आवरण दूर होगा तब आत्मविचार पैदा होगा । ग्रंथकार उपाध्यायजी ने आत्मचिंतन को, चंदनवृक्षों की घटा में से आता हुआ सुगंधित शीतल पवन जैसा कहा है ! जिस पवन में चंदन की सुगंध होती है और चंदनवत् शीतलता होती है । भीतर में ही परम आनन्द का अनुभव होता है । समाधिशतक में उपाध्यायश्री यशोविजयजी ने कहा है -
रागादिक जब परिहरी, करे सहज गुणखोज, घट में भी प्रगटे तदा, चिदानन्द की मोज । यदि भीतर में चिदानन्द पाना है तो आत्मचिंतन करना ही होगा। आत्मा के | एकत्व-भावना
२५३ |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org