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प्रतापैर्व्यापन्नं गलितमथ तेजोभिरुदितैर्गतं धैर्योद्योगैः श्लथितमथ पुष्टेन वपुषा । प्रवृत्तं तद्रव्यग्रहणविषये बान्धवजनै
र्जने कीनाशेन प्रसभमुपनीते निजवशम् ॥३॥
उपाध्याय श्री विनयविजयजी कहते हैं : 'जब मनुष्य यमराज के बलात्कार का भोग बनता है तब उसका प्रताप नष्ट हो जाता है, उसका उदित तेज अस्त हो जाता है, उसका धैर्य और पुरुषार्थ विलय हो जाता है, पुष्ट शरीर शिथिल हो जाता है और उसके स्वजन, उसका धन-वैभव लेने के लिए प्रयत्नशील बन जाते हैं । मृत्यु के सामने मनुष्य सर्वथा दीन बन जाता है, यह है मनुष्य की घोर अशरणता !'
यादवों से मरी हुई द्वारिका जल रही है :
द्वैपायन, जो कि अग्निकुमार देव बना है, उसने श्रीकृष्ण का चक्र और बलदेव का हल - शस्त्र नष्ट कर दिये। उसने संवर्तक वायु प्रवर्तित किया । उस वायु से चारों दिशाओं में से तृण, काष्ठ वगैरह द्वारिका में भर गये। लोग जब चारों दिशाओं में भागने लगे तब अग्निकुमार उन लोगों को द्वारिका में पकड़कर लाया, दिशा - विदिशाओं में से वृक्षों को लाकर द्वारिका में डाले और सभी यादवों को द्वारिका में बंद कर दिये। बाद में द्वैपायन ने आग जलायी । समग्र द्वारिका जलने लगी । अग्निज्वालाएँ आकाश को छूने लगी । कृष्ण और बलराम का प्रताप नष्ट हो गया था, तेज अस्त हो गया था, धैर्य और पुरुषार्थ विलीन हो गये थे । वे अशरण - असहाय बनकर जलती हुई द्वारिका को देख रहे थे । माता-पिता को बचाने का प्रयत्न :
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श्रीकृष्ण और बलराम ने वसुदेव, देवकी और रोहिणी को आग से बचाने के लिए रथ में बिठाये, परंतु द्वैपायन- देव ने रथ के अश्वों को स्तंभित कर दिये । अश्व एक कदम भी चल नहीं सके । श्रीकृष्ण ने रथ के आगे बलिष्ठ वृषभों को जोड़े। वृषभ - बैल भी स्तंभित हो गये। श्रीकृष्ण ने वृषभों को भी रथ से मुक्त कर दिये और वे दोनों भाई रथ को खींचने लगे । वहाँ रथ की धुरा टूट गई। फिर भी बड़ी मुश्किल से वे रथ को नगर के दरवाजे तक ले आये । उस समय नगर के दरवाजे बंद हो गये । माता-पिता चिल्लाने लगे
'हे राम,
कृष्ण,
हमारी रक्षा करो... हमें बचा लो...। द्वारिका जल रही थी, क्रोडों यादव
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अशरण भावना
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