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थी। माधोजी वहाँ जाकर पृथ्वी की रज लेते और अपने मस्तक पर रखते । आँखों में से अश्रुधारा बहती... अंत में अट्टहास करते और वापस पींपली लौटते 1
यह नित्यक्रम आठ वर्ष तक चलता रहा। जब माधोजी के वस्त्र गंदे हो जाते, पसीने से दुर्गंधमय हो जाते, वस्त्रों में जू पड़ जाती, सर में से भी जू जमीन पर गिरती तो माधोजी उठाकर सर में रख देते... और हँसते । शरीर के ऊपर के वस्त्र फट जाते... तब गाँव के सज्जन लोग नये दो वस्त्र सिलवाकर, माधोजी को पहना देते ।
माधोजी को अब दिन-रात का भान नहीं रहता था । न किसी से प्रीत थी, न किसी से वैर था । गाँव में रहने पर भी वे गाँव से न्यारे थे । सुख - दुःख का कोई भेद नहीं रहा था । ऐसी स्थिति में माधोजी ने आठ वर्ष बिता दिये थे । तब इस प्रसंग के लेखक वैद्य जादवजी नरभेराम शास्त्री, पींपली पहुँचते हैं । अब मैं उनके ही शब्दों में आगे की कथा कहता हूँ ।
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'मैं उस गाँव में गया। गाँव के प्रवेशद्वार के पास ही मेरा घर था | प्रवेशद्वार को गुजराती में 'झांपों दरवाजा कहते हैं । गर्मी के दिनों में मैं दरवाजे के पास ही खाट डालकर सो जाता था । प्रथम रात्रि में ही मैंने माधोजी का अट्टहास सुना । मैं तुरंत जग गया । मैं खड़ा हुआ । उसके पास गया, उसको देखा... मैंने मान लिया कि वह सचमुच अवधूत था, योगी पुरुष था । हमारी आँखें मिली । एक-दूसरे को पहचान लिया ।
अब माधोजी मध्यरात्रि के समय जब गाँव के बाहर जाते, तब प्रवेशद्वार में मेरी खटिया के पास आकर खड़े रहते, मेरे सामने एकटक देखते रहते... मैं भी जग जाता... वे मंद-मंद मुस्कराते और चले जाते । आठ वर्ष से वे बोले नहीं
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थे । गाँव के लोग माधोजी को पागल मानते । माधोजी पूरे जगत को पागल मानते हुए अपने मार्ग पर चल रहे थे । परंतु उनको जैसे विश्राम की प्रतीक्षा थी वैसा विश्राम गाँव के प्रवेशद्वार पर मिल गया और मुझे कई वर्षों से जैसे पुरुष की अपेक्षा थी वैसा पुरुष मिल गया ! दो महीने तक हमारा इस प्रकार मौन मिलन होता रहा । मैंने उनको बुलाने का उपाय सोचा। मैं उनसे बात करना चाहता था । मैंने एक उपाय सोच लिया । रात्रि के समय, जहाँ दरवाजे के पास मैं सोता था, वहाँ पर लालटेन जलाकर मैं तुलसी - रामायण का अयोध्याकांड पढ़ने लगा । प्रतिदिन माधोजी रात्रि में वहाँ आकर बैठने लगा । श्रीराम का वनवास, अयोध्यावासियों का कल्पांत, भरत का रुदन ... वगैरह का मैं गुजराती भाषा में
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शान्त सुधारस : भाग १
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