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________________ एक महात्मा को मैं जानता था, उनकी मृत्यु हो गई है, परंतु उनके जीवनकाल में अनेक उतार-चढ़ाव आये थे । उनका एक अनन्य भक्त था । २५ - ३० वर्षों से उनकी सेवा-भक्ति करता था, उसके गुणगान गाता था । परंतु एक दिन ऐसा आया... भक्त की कोई बात उस महात्मा ने नहीं मानी... और वह भक्त शत्रु बन गया । जिस महात्मा के वह गुण गाता था, अब वह निंदा करने लगा । चरित्र हनन करने लगा । परंतु वे महात्मा निराकुल रहे ! उनका मन अशान्त नहीं बना । एक शिष्य ने पूछा : 'गुरुदेव, वह आपका भक्त अब शत्रु बनकर घोर निंदा कर रहा है, आप उसकी गलत बातों का खंडन क्यों नहीं करते ?' उस महात्मा ने हँस दिया और कहा जैसे प्रशंसा शाश्वत् नहीं होती वैसे निंदा भी शाश्वत् नहीं होगी ! निंदा-प्रशंसा दोनों कर्मजन्य भाव हैं। उसमें हर्ष - शोक नहीं करने चाहिए । अज्ञानी जीव जो भूल करता है, ज्ञानी को वैसी भूल नहीं करनी चाहिए !' मोह का जहर, भावनाओं से उतर जाता है । इसलिए भावनाओं से भावित करना है अपने मन को, अपनी आत्मा को । प्रतिदिन भावनाओं का चिंतन करते रहना है । जब-जब संसार में कोई मोहजन्य विषमता पैदा हो, तब-तब आप अनुरूप भावना का चिंतन कर, मन को स्वस्थ रख सकते हो । एक श्रेष्ठी के विषय में गुरुजनों से सुना था कि वे प्रतिदिन जिनवाणी सुनने उपाश्रय में नियमित ९ बजे आ जाते । ९ बजे प्रवचन शुरु होता । दो महीने के बाद एक दिन वे श्रेष्ठी आधा घंटा देरी से आये और पीछे बैठ गये । प्रवचनकार आचार्यश्री ने उनको देख लिये । प्रवचन पूर्ण होने पर, जब वे श्रेष्ठी चरणस्पर्श करने गुरुदेव के पास आये, तब गुरुदेव ने पूछा : 'आज क्यों देरी हुई ? श्रेष्ठी ने कहा : 'गुरुदेव, एक मेहमान को बिदा देने गया था, इसलिए देरी हो गई ।' बड़ी गंभीरता से उन्होंने यह बात कही । गुरुदेव सोच में पड़ गये, कि पास खड़े हुए एक भाई ने गद्गद् स्वर में कहा : 'गुरुदेव, इनका इकलौता बड़ा बेटा... जो कि दुकान का सारा व्यवहार संभालता था, रात्रि में उसकी मृत्यु हो गई... सुबह में उसकी स्मशानयात्रा थी....:. गुरुदेव की आँखें भर आयी, परंतु वे श्रेष्ठी स्वस्थ रहे । उन्होंने पुत्र को भी घर में मेहमान माना था ! संयोग-वियोग का चिंतन किया था । 'स्वजन - परिजनों से मैं भिन्न हूँ, इस अन्यत्व - भावना से वे भावित बने थे । इसलिए वे पुत्र की मृत्यु से शोकमग्न नहीं बने, अस्वस्थ नहीं बने । आर्तध्यान नहीं किया । २८ शान्त सुधारस : भाग १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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