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जराकुमार समवसरण में ही बैठा था । भगवंत के वचन सुनकर वह खिन्न हो गया। उसके हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति अपार स्नेह था। उसने सोचा : 'मैं श्रीकृष्ण का भ्राता हूँ। मैं उनका कैसे घात कर सकता हूँ । मैं द्वारिका में नहीं रहूँगा । उसने वनवास स्वीकार कर लिया। ___ द्वैपायन ऋषि, जो कि द्वारिका के पास रहते थे । उन्होंने भगवान नेमिनाथ की भविष्यवाणी सुनी । वे गहरे सोच में पड़ गये । उनके मन में द्वारिका से व यादवों से लगाव था। कृष्ण और बलराम से स्नेह था। उनका मन भी विक्षुब्ध हो गया। वे भी अपना आश्रम छोड़कर दूर-दूर गिरि गुफा में चले गये ।
श्रीकृष्ण ने भगवान से जान लिया था कि यह सारा अनर्थ शराब की वजह से होनेवाला है, मदिरा से होनेवाला है । उन्होंने अपने नगर में, संपूर्ण द्वारिका में मदिरापान का निषेध जारी कर दिया। द्वारिका में जितनी भी मदिरा थी, वह सारी की सारी मदिरा, कदंब वन में जो कादंबरी नाम की गुफा थी, उसके पास अनेक शिलाखंड थे, वहा डाल दी गई । उधर मदिरा की एक नदी सी बहने लगी। वह मदिरा, विविध वृक्षों के सुगंधी पुष्पों के संपर्क से ज्यादा स्वादिष्ट हो गई।
वैशाख महिना था । एक दिन, कृष्णपुत्र शाबकुमार का एक सेवक उधर से गुजरा कि जहाँ मदिरा बह रही थी। उसे तृषा लगी थी, उसने वहाँ मदिरापान किया । मदिरा के स्वाद से वह हर्षित हुआ । उसने कुछ मदिरा भाजन में भर ली और छुपाकर शांबकुमार के पास ले आया। शांबकुमार ने मदिरापान किया। वह बहुत खुश हुआ । उसने सेवक से पूछा : ऐसी मदिरा त कहाँ से ले आया ? सेवक ने सारी बात बताई। दूसरे ही दिन शांबकुमार अनेक यादवयुवकों के साथ कादंबरी गुफा के पास गया । वहाँ उसने शिलाखंडों के बीच बहती हुई मदिरा की नदी को देखा ! वह हर्षोन्मत्त हुआ। उसने सेवकों से मदिरा मंगवाकर पीना शुरू किया। सभी ने पेट भरकर मदिरापान किया। सभी कुमार उन्मत्त बने । वहाँ से वापस लौटे । रास्ते में उन्होंने उस कदंब वन में द्वैपायन ऋषि को ध्यानस्थ अवस्था में खड़े हुए देखे ।
शांबकुमार द्वैपायन ऋषि को देखते ही बोला : यह तापस, हमारी द्वारिका . को और हमारे कुल को जलाकर मार देनेवाला है, इसलिए इसको ही मार डालें! यह मर जायेगा, फिर वह द्वारिका को कैसे जला देगा ? हमारे कुल को कैसे मारेगा ?' शांबकुमार की आज्ञा होते ही यादवकुमारों ने द्वैपायन ऋषि को मारना | अशरण भावना
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