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में शब्द-लालित्य होता है, भावों की गहराई होती है, वह काव्य हृदयस्थ हो जाता
_ 'भावनाओं का विषय शास्त्रीय है, धार्मिक है, आध्यात्मिक है, ऐसे विषय को मनुष्य के हृदय तक पहुँचाने का श्रेष्ठ माध्यम काव्य है. गेय काव्य है । शान्त-सुधारस भिन्न-भिन्न रागों में निबद्ध महाकाव्य है । विविध शास्त्रीय रागों में निबद्ध है । इसलिए इसको गा सकते हैं...गाते-गाते दिव्य भावों में लीन हो सकते हैं । क्लेशमय, दुःखमय दुनिया को भूल सकते हैं । शान्ति, समता और समाधि की अनुभूति कर सकते हैं । मोहमूढ़ता के दुष्परिणाम :
सदैव याद रखना है कि यह दुनिया क्लेशमय है और दुःखमय है । चूंकि समग्र जीवसृष्टि पर राग-द्वेष और मोह का प्रगाढ़ आवरण छाया हुआ है । रागीद्वेषी और मोहान्ध जीव कैसे सुख-शान्ति और समता-समाधि पा सकता है ? नहीं पा सकता है ! राग-द्वेष और मोह के कारण जीवात्मा - ___ * अनित्य को नित्य मानता है । शरीर, आयुष्य, रिद्धि, सिद्धि और संपत्ति, पाँच इन्द्रियों के विषय-सुख, मित्र-स्त्री-स्वजनों का संगम सुख.... यह सब अनित्य, क्षणिक होते हुए भी नित्य मानकर जीता है।
* बड़े-बड़े सम्राट, देव-देवेन्द्र, चक्रवर्ती... ये सभी मृत्यु के आगे अशरण होते हैं, फिर भी मोहाकुल मनुष्य अपनी अशरणता का विचार नहीं करता है । अशरण होते हुए भी अपने तेज से, प्रताप से, पुरुषार्थ से, धनवैभव से अभिमान करता रहता है।
* मोहाक्रान्त मनुष्य को संसार भयानक वन नहीं दिखता है । लोभ का दावानल नहीं दिखता है । विषय-तृष्णा मृगजल जैसी नहीं लगती है । अनन्त चिन्ताओं से घिरा हुआ रहता है, मन-वचन-काया में निरंतर विकार उत्पन्न होते रहते हैं, कदम-कदम पर आपत्तियों के गहरे खड्डे में गिरता रहता है, फिर भी वह संसार से विरक्त नहीं बनता है । कर्मों के कुटिल बंधनों से बंधा हुआ जीवात्मा दिक् भ्रान्त बन कर भटक रहा है... फिर भी वह अपने आपको स्वाधीन-स्वतंत्र समझता है ! वह सोच ही नहीं सकता है कि वह अनादि भवसागर में अनन्त काल से भ्रमण कर रहा है । मोहवश...अज्ञानवश वह संसार में जो संबंधों के परिवर्तन होते हैं, उन परिवर्तनों को समझ सकता ही नहीं है । जन्म के परिवर्तन के साथ
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प्रस्तावना
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