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________________ स्पृहा, पर-तृष्णा छूट जाने पर आत्मा खाली हो जाती है । खाली आत्मा अनंत सुख से भर सकती है । खाली-अपूर्ण आत्मा पूर्ण सुख से भर सकती है । अनन्त सख पाने की तत्परता : जिन लोगों के पास आध्यात्मिक ज्ञान नहीं होता है, जो लोग आत्मज्ञान पाये नहीं है, जिनको आत्मा के स्वाभाविक और वैभाविक स्वरूप का ज्ञान नहीं है, वे लोग यदि मोक्ष पाने की ही बात करते हैं तो वह रटी हुई बात होती है । तोते को जैसे राम-नाम रटाया जाता है और वह राम...राम बोलता है, वैसी बात होती है मोक्ष की । मोक्ष के स्वरूप का ज्ञान नहीं और मोक्ष पाने की बात करना! कितनी बुद्धिहीन बात है ! आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान नहीं है, वैभाविक स्वरूप में रमणता है और मोक्ष की बात करता है । उसको शर्म भी नहीं आती । अनन्त सुख को समझे बिना, वह पाने की तत्परता मन में उठती ही नहीं है । आत्मा का स्वयं का जो सुख है वह अनंत सुख ही है, पूर्णानन्द ही है । कर्मजन्य सुख आत्मा का स्वयं का नहीं है । भले ही देवराज इन्द्र का सुख हो, या चक्रवर्ती राजा का सुख हो । ___ चक्रवर्ती राजाओं ने क्यों अपने सारे सुख छोड़कर साधुता का स्वीकार कर लिया था ? भरत चक्रवर्ती, सनत्कुमार चक्रवर्ती, शान्तिनाथ चक्रवर्ती...वगैरह चक्रवर्ती राजाओं ने 'ये सुख हमारे निजी स्वाभाविक सुख नहीं हैं...ये सारे सुख कर्मजन्य हैं, वैभाविक हैं... यह समझे हुए थे, और 'अनन्त शाश्वत् सुख ही आत्मा का स्वाभाविक सुख होता है । वह एक बार पा लेने पर...पुनः पाना नहीं पड़ता है, चूंकि वह चला जाता नहीं है । निजी सुख एक बार ही पाना पड़ता है । पा कर भोगते रहो । अशरीरी-अरूपी बन कर भोगते रहो ! कितना भी वह सुख भोगों, सुख कम नहीं होगा और आत्मा कभी थकेगी नहीं । चूँकि अनंत सुख के साथ अनन्त शक्ति भी आत्मा को प्राप्त हो जाती है । अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन प्रगट हो जाते हैं । सब कुछ अनन्त...शाश्वत्...अविनाशी प्राप्त होता है । वह अनन्तं पाने की इच्छा आपके मन में जाग्रत हुई है क्या ? यह इच्छा जाग्रत होने पर यह शान्तसुधारस ग्रंथ सुनने में आप आनन्द का अनुभव करोगे । आंतर सुख का अनुभव करोगे । ग्रंथकार उपाध्यायजी महाराज श्रोताओं से यह अपेक्षा रखते हैं । 'शान्तसुधारस सुनने की योग्यता का निर्णय उन्होंने इस प्रकार किया है - आपका चित्त 'भवभ्रमखेदपराङ्गमुखं और अनन्तसुखोन्मुखम्' होना चाहिए । तभी आप शान्त सुधारस : भाग १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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