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________________ ज्ञानदृष्टि खुलने पर ही यह बात बन सकती है । जब तक ज्ञानदृष्टि नहीं खुलती है तब तक संसार के क्षणिक और विनाशी सुखों की तृष्णा जगती रहेगी । वे सुख पाने की दीनता बनी रहेगी । क्षणिक-विनाशी वैषयिक सुखों की तृष्णा कृष्णसर्प जैसी है । कृष्णसर्प काटता है तो कैसी वेदना होती है ? वैषयिक सुखों की तृष्णा वैसी ही वेदना देती है । इसलिए संसार के वैषयिक सुखों की तुष्णा को समाप्त करनी होगी। यह कार्य ज्ञानदृष्टि से ही हो सकता है । ज्ञानदृष्टि वैषयिक सुखों के भीतर दुःख का दर्शन करवाती है । जैसे वैज्ञानिक दृष्टि, पानी में ऑक्सीजन और हाइड्रोजन का दर्शन करवाती है । वैसे ही वैषयिक सुखों में दुःखदर्शन होगा, उन सुखों की तृष्णा नष्ट हो जायेगी । वैसे सुख नहीं मिलने पर दीनता नहीं रहेगी। ज्ञानदृष्टि आपको अनन्त सुख पूर्ण सुख, पूर्णानन्द पाने के लिए प्रेरित करेगी। इसलिए वैषयिक सुखों का त्याग करने के लिए तत्पर करेगी। ___ भगवान महावीर स्वामी के समय में अनेक राजाओं को, अनेक श्रेष्ठियों को...अनेक अमात्यों को ज्ञानदृष्टि जाग्रत हुई थी और उन्होंने अपने विपुल वैषयिक सुख-साधनों का त्याग कर दिया था। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद भी, उनके धर्मशासन में यह सिलसिला चलता रहा है । ज्ञानदृष्टि खुलने पर हजारों...लाखों स्त्री-पुरुषों ने सभी वैषयिक सुखों का त्याग कर दिया है। - राजा दशार्णभद्र, राजा उदयन वगैरह राजाओं ने ज्ञानदृष्टि खुलने पर राजवैभव का पूर्णतया त्याग कर साधुजीवन का स्वीकार कर लिया था न ? - श्रेष्ठी शालिभद, श्रेष्ठी धनकुमार, श्रेष्ठी अवंती सुकुमाल वगैरह ने करोड़ों रुपयों की संपत्ति का त्याग कर और रूप-सौन्दर्यवती पलियों का त्याग कर साधुजीवन स्वीकार कर लिया था न ? २५०० वर्षों का इतिहास पढ़ोगे तो पढ़तेपढ़ते आपकी ज्ञानदृष्टि खुल जायेगी । __ - कई राजारानियों ने, कई राजकुमारियों ने, कई श्रेष्ठीपत्नियों ने और कई श्रेष्ठीकन्याओं ने विपुल सुख-वैभव का त्याग इसलिए कर दिया था, चूंकि वह संपत्ति-वैभव शाश्वत् नहीं था, क्षणिक था। शाश्वत् को पाने के लिए क्षणिक का त्याग करना अनिवार्य होता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि शाश्वत् सुख, अनंत सुख पाने की तत्परता जाग्रत होने पर क्षणिक छट जाता है, विनाशी का विसर्जन हो जाता है । अपूर्णः पूर्णतामेति । अपूर्ण हो जाना यानी खाली हो जाना । क्षणिक-विनाशी सुख छूट जाने पर आत्मा खाली हो जाती है । पर प्रस्तावना 883333333333 BE ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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