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________________ न वह शील का पालन करता है, न वह तप करता है और न वह अच्छे विचार करता है । मोहाधीन मनुष्य को असत्य प्रिय होता है, क्रोध अच्छा लगता है, मानसम्मान की चाह रखता है, लोभ का संग करता है । उसको कपट-क्रिया प्रिय होती है, वह अब्रह्मसेवन करता है, ब्रह्मचर्यपालन उसे उच्छा नहीं लगता है। न वह संयम को उपादेय मानता है । * मोहाधीन मनुष्य को यह कहा जाय कि धर्म के प्रभाव से सूर्य और चन्द्र, इस विश्व पर उपकार करने प्रतिदिन उदित होते हैं और भयानक ताप से संतप्त धरा को शीतलता देने के लिए मेघ बरसते हैं, तो वह हँसता है ! सत्य का अस्वीकार कर देता है ! वह यह भी नहीं मानता कि धर्म के प्रभाव से ही समुद्र पृथ्वी को डूबा नहीं देता है और सिंह वगैरह हिंसक पशु मानवसृष्टि का नाश नहीं करते हैं ! वह यह भी नहीं मानता कि मनुष्य के लिए अंतिम शरण धर्म ही है ! __ * मोहासक्त मनुष्य को कहा जाय कि तुम चौदह राजलोक का चिन्तन करो।' वह कब और कैसे करेगा लोकस्वरूप का चिंतन ? उसके चित्त में तो वैषयिक चिंतन चलता रहता है, आर्त-रौद्रध्यान का चिंतन चलता रहता है ! न उसको अधोलोक में आयी हुई सात नरक से मतलब होता है, न ऊर्ध्वलोक के देवलोकों से संबंध होता है । नहीं वह मध्यलोक के असंख्य द्वीप-समुद्रों में रुचि रखता है । मोहाक्रान्त मनुष्य की अभिरुचि लोकस्वरूप के विषय में होती ही नहीं है । लोक में ६ द्रव्य हो या न हो, कृत्रिम हो या अकृत्रिम हो, आदि-अंत रहित हो या सहित हो ! ऐसे लोगों को मनःस्थिरता से कोई मतलब नहीं होता ! फिर वह लोकस्वरूप का चिंतन क्यों करेगा ? * प्रगाढ़ गोदान्धकार से व्याप्त जीवात्मा 'बोधि' कैसे प्राप्त कर सकता है ? वह समझता ही नहीं कि बोधि क्या बात है ? न वह बोधि के प्रभावों को जानता है, न वह बोधि का स्वरूप जानता है ! निगोद के अंधकारमय कूप में... प्रतिसमय जन्म-मृत्यु की परंपरा में अति दुःखी जीवों को भावों की शुद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ? सूक्ष्म निगोद में से निकल कर बादर स्थावरत्व प्राप्त करें, तो भी त्रसत्व प्राप्त करना दुर्लभ होता है । उसमें भी पंचेन्द्रिय होना, पप्ति प्राप्त करना, संज्ञा होना... यह सब अति मश्किल होता है । बाद में मनुष्य-जीवन पाना और दृढ़ आयुष्य पाना सरल नहीं होता। मनुष्य-जीवन पाकर मूर्ख मनुष्य महामोह में...मिथ्यात्व में और मायाकपट में उलझ जाता है और पुनः संसार के अपध कूप में गिर जाता है । मनुष्य शान्त सुधारस : भाग १ ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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