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राजा ने कहा : 'गुरुदेव, वे बौद्ध भिक्षु एक-दो या सौ-दो सौ नहीं हैं, वे शत- सहस्त्र हैं । उन पर विजय पाना सरल नहीं है... हाँ, यदि आपके पास कोई दिव्य अजेय शक्ति हो !'
आचार्यदेव ने कहा : 'राजन्, जिनशासन की अधिष्ठायिता देवी अंबिका मेरे पर प्रसन्न है । तुम निश्चित रहो, मैं अकेला उन हजारों को पराजित कर सकता ''
आज जो बात मुझे बतानी है वह यही बात है । भावनाओं के बिना, विद्वानों को, शास्त्रज्ञों को भी शान्ति नहीं मिल सकती है । आचार्य हरिभद्रसूरि सामान्य विद्वान नहीं थे । जैनागमों के ही नहीं, वे षड् दर्शनों के पारगामी थे । परंतु अपने दो शिष्यों की मृत्यु से, दो शिष्यों के विरह से, वे कितने व्यथित हो गये ? एक दुःखद घटना ने उनको कितने विचलित... रोषायमान और वैर की भावना से उत्तेजित कर दिये ? वे अशान्त बन गये, व्यथित बन गये... उनके मन में वैर की आग जल उठी। क्यों ? 'भावनाओं का चिंतन नहीं किया था । 'एकत्व' और 'अन्यत्वं' भावना का मनन नहीं किया था। संबंधों की अनित्यता' का चिंतन नहीं किया था । ज्ञान था, परंतु 'भावना' नहीं थी ! अध्ययन था, अनुप्रेक्षा नहीं थी । इसलिए बौद्ध आचार्य और बौद्ध भिक्षुओं के प्रति तीव्र रोष लिये वे वादविवाद कर, उन भिक्षुओं को मौत के घाट उतारने की बात करने लगे । उन्होंने राजा सुरपाल को कहा: 'राजन्, उन दुष्ट बौद्ध भिक्षुओं को यहाँ बुलाकर कहना - तुम्हें जैनाचार्य हरिभद्रसूरि से वाद-विवाद करना है । जो हारेगा उसको गरमागरम तैल के कुंड में गिरना होगा .... ।'
राजाने बौद्ध आचार्य को बुला कर सारी बात बता दी । वाद-विवाद निश्चित हो गया । वाद का प्रारंभ हुआ। दूसरी ओर कुंड में गरमागरम तैल भर दिया गया । बाद में बौद्ध आचार्य हार गया । उनको तैल के कुंड में डाल दिया गया । बाद में एक के बाद एक ऐसे पाँच बौद्ध भिक्षु हार गये। सभी को तैल के कुंड में डाल दिये गये । वे सभी मृत्यु की गोद में समा गये ।
इस विषय में अलग-अलग प्राचीन ग्रंथों में अलग-अलग मंतव्य प्राप्त होते
हैं ।
'प्रभावक चरित्र' नाम के ग्रंथ में कहा गया है कि 'अपने दो शिष्यों की मृत्यु से रोषायमान बने हुए हरिभद्रसूरि ने महामंत्र के प्रभाव से बौद्ध भिक्षुओं का आकर्षण कर, आकाशमार्ग से ला- लाकर गरमागरम तैल के कुंड में डाल
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प्रस्तावना
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