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________________ सुख और आनन्द कहाँ है ? उपाध्यायजी महाराज कहते हैं : 'सम्यग् ज्ञान के अभ्यास से उन्नत और विवेकअमृत की वृष्टि से सुशोभित एवं मृदु बने हुए अंतःकरण में ये सुंदर भावनायें रहती हैं । और ये भावनायें ही अलौकिक सुख और आनन्द पैदा करती हैं । इसका अर्थ समझे आप लोग ? सुख और आनन्द भीतर में अन्तःकरण में खोजने के हैं, भीतर में पैदा करने के हैं, बाह्य विश्व में नहीं ! ये भावनायें ही भीतर में सुख और आनन्द पैदा करती हैं ! इसलिए जो प्रबुद्ध मनुष्य सदैव ईन भावनाओं के माध्यम से विचार-चिंतन-मनन करता रहता है, वह सदैव सुखी और आनन्दित रहता है ! वह कभी दुःखी और अशान्त नहीं रहता यह बात, एक कथा कहकर समझाऊँगा । एक दिन गाँव में प्रभात होते ही एक आकाशवाणी सुनाई दी । ऐसी आकाशवाणी - दिव्य घोषणा किसी ने कभी नहीं सुनी थी । घोषणा कौन कर रहा है, कहाँ से हो रही है, वह मालुम नहीं पड़ता था । परंतु घोषणा के शब्द स्पष्ट थे । 'है संसार के लोगों, परमात्मा की ओर से आप को एक अमूल्य भेंट दी जाती है । तुम्हारे दुःखों से मुक्त होने का एक अमूल्य अवसर दिया जाता है । आज मध्यरात्रि में, आप अपने सभी दुःखों की गठरी बांधकर नगर के बाहर छोड़ दें और जो सुख, जितना सुख चाहिए, उसकी गठरी बांधकर सूर्योदय से पहले नगर में ले आयें । एक रात के लिये पृथ्वी पर कल्पवृक्ष आनेवाला है, इसलिए कोई प्रमाद नहीं करें। जिस गठरी में दुःख होगा, उस गठरी में सुख आ जायेगा । बिना भूल किये, आज रात में सुखी बन जाओ !' ये शब्द सभी लोगों को सुनायी दिये । बार बार यह घोषणा होती रही । सूर्यास्त तक होती रही । लोगों को घोषणा पर श्रद्धा हो गई। कौन वैसा मूर्ख होगा कि जो ऐसा स्वर्ण-अवसर गंवा दे ? और, संसार में ऐसा कौन है कि जो दुःखी नहीं है और ऐसा कौन है कि जिस को सुख पाने की कामना नहीं है ? सभी लोग अपने-अपने दुःख याद कर गठरी बाँधने लगे। सभी को एक ही चिन्ता थी कि एक भी दुःख गठरी में बाँधना रह नहीं जायें ! मध्यरात्रि होने पर गाँव के सभी घर खाली हो गये ! हजारों स्त्री-पुरुष एक कतार में अपनेअपने दुःखों की गठरी उठाये गाँव के बाहर जा रहे थे। सभी ने दूर दूर जाकर दुःखों की गठरियाँ फेंक दी । वापस लौटते समय सभी अपने-अपने सुखों की गठरी बाँधने लगे । याद ७८ शान्त सुधारस : भाग १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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