SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगी ने पृथ्वी की ओर देखा तो उसके मृतदेह को पुष्पहारों से सजाया गया था और देह की अंतिम यात्रा बड़ी शान से निकल रही थी । जब कि उस वेश्या के मृतदेह को उठानेवाला भी कोई नहीं था। उसकी लाश घर से बाहर रास्ते की एक ओर पड़ी हुई थी। कुत्ते और गीध उस मृतदेह की मेजबानी उड़ा रहे थे । मजा लूट रहे थे । यह देखकर योगी बोला : हे यमदूत, तुम से तो ज्यादा ये पृथ्वी के लोग न्यायपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं । देखो और कुछ समझों, तुम कैसी भूल कर रहे हो !' ___ यमदूत ने कहा : पृथ्वी के लोग मात्र इतना ही जानते हैं कि जो बाहर दिखता है । उनकी दृष्टि शरीर से ज्यादा गहरी पहुँच नहीं पाती है । प्रश्न शरीर का नहीं है, मन का है ! शरीर से तुम संन्यासी थे, परंतु तुम्हारे मन में क्या था ? क्या तुम्हारा मन वेश्या के घर में हो रहे सुंदर नाच-गान और आनंद से आकर्षित नहीं रहता था ?' मेरा जीवन कितना नीरस व्यतीत हो रहा है और यह वेश्या कैसा मजा ले रही है ? तुम यह सोच रहे थे। परंतु तुम्हे मालुम है कि वेश्या की मानसिक स्थिति कैसी थी ? वह वेश्या तो तुम्हारे संन्यासी – जीवन में जो शान्ति और अपूर्व आनन्द दिखता था, वह पाने के लिए विचारों में खोयी हुई रहती थी ! रात्रि में जब तुम भजन गाते तब और प्रातःकाल में जब मधुर-मंगल श्लोक गाते तब वह वेश्या प्रभुमय बन जाती और भावविभोर हो आँसू बहाती थी। एक ओर तुम संन्यासी होने के अहंकार को पुष्ट करते थे, दूसरी ओर वह वेश्या अपने पापी जीवन के पश्चात्ताप से विनम्र होती जा रही थी । तुम तुम्हारे ज्ञान से गर्वित होते जा रहे थे, वह वेश्या अपने अज्ञान के बोध से सरल और शुद्ध होती जा रही थी । परिणाम स्वरुप तुम्हारा व्यक्तित्व अहंकारपूर्ण बना और वेश्या का व्यक्तित्व अहंकारशून्य बनता रहा । वेश्या के चित्त में नहीं था अहंकार, नहीं थी वासना । मृत्यु के समय उसका चित्त परमात्मा की प्रार्थना में लीन था । संन्यासी मौन हो गया । कहने का तात्पर्य यह है कि परम सत्य की प्राप्ति मात्र बाह्य धर्मक्रियाओं से नहीं होती है । बाह्य धार्मिक आचरण से कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता है । आध्यात्मिक उन्नति भीतर में होती है । आंतरिक चेतना - केन्द्र को पकड़ना होगा । भावनाओं के निरंतर मनन-मंथन से आंतरिक चेतना केन्द्र खुलता है । और अपूर्व आत्मानन्द की अनुभूति होती है । ७७ | प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy