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को विदधानां भूधनमरसं प्रभवति रोर्बु जरसम् ॥६॥
विनय विधीयतां रे श्रीजिनधर्मशरणम् ।। भले ही आप दीर्घकाल तक प्राणायाम करें, श्वासनिरोध करें, भले ही समुद्र के उस पार जाकर रहें, भले ही ऊँचे पहाड़ के शिखर पर जाकर रहे, परंतु एक दिन तुम्हारा इस देह का पिंजरा जीर्ण होनेवाला ही है ! यानी वृद्धावस्था आनेवाली
श्याम केश से शोभित सिर को श्वेत कर देनेवाली और सुंदर शरीर को शुष्क कर देनेवाली जरा - वृद्धावस्था को रोकने में कौन समर्थ है ? कोई भी शक्तिमान नहीं है।
वृद्धावस्था से बचने का एक ही मार्ग होता है । वृद्धावस्था के पूर्व ही यदि आयुष्य पूर्ण हो जायं, मृत्यु हो जायं तो बच सकते हो वृद्धत्व से । उग्र रोगों के सामने जीव की अशरणता :
उद्यत उग्रस्जा जनकायः कः स्यात् तत्र सहायः ? एकोऽनुभवति विधुस्परागं, विभजति कोऽपि न भागम् ॥
. विनय ! विधीयतां रे श्रीजिनधर्मः शरणम् । जब मनुष्य के शरीर में उग्र रोग पैदा होते हैं, तब उसको कौन बचा सकता है ? कोई भी नहीं । राहु की पीड़ा अकेला चन्द्र ही सहन करता है, वैसे तुम्हार रोगों की पीड़ा तुम्हें अकेले को ही सहने की है। उसमें कोई भी हिस्सा नहीं बँटाता है। ___ यही बात, राजगृही के मंडितकुक्षी नाम उद्यान में अनाथीमुनि राजा श्रेणिक को अपने ही वृत्तांत से बता रहे थे। कल मैंने आपको यह वृत्तांत सुनाया था न ? उस पर आपने घर जाकर चिंतन-मनन किया था न ? याद रखना, ये प्रवचन भावनाओं के विषय में चल रहे हैं। पुनः पुनः चिंतन करना ही भावना है। अनित्यता का पुनः पुनः चिंतन करना है। अशरणता का बार-बार चिंतन करना है। तभी ये भावनाएँ आत्मस्पर्शी बनेंगी। मैं अशरण हूँ इस संसार में यह अनुभूति तब होगी। अनाथिमुनि का आत्मवृत्तान्त :
राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में मुनिराज ने कहा : मैंने मेरे मन में सोचा, संकल्प किया कि इस तीव्र - विपुल वेदना से यदि एक बार मैं मुक्त हो जाऊँ तो क्षमावान बनानेवाली, इन्द्रिय और मन का विजेता बनानेवाली और अनारंभी । अशरण भावना
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