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________________ यदपि पिण्याकतामंङ्गमिदमुपगतं भुवन- दुर्जयजरापीत - सारम् । तदपि गतलज्जमुज्झति मनोनांगिनां, वितथमति - कुथित मन्मथ - विकारम् ॥ कामविकारों का प्राबल्य बताते हुए उपाध्याय श्री विनयविजयजीने कहा है : जरा से सत्वहीन और क्षीण देहवाले जीवों का निर्लज्ज मन, जो कि इस जगत में अति दुर्जय है, कामविकारों का त्याग नहीं करता है, यह कितनी शर्म की बात है ! कामविकारों की प्रबलता : यौवन तो कामवासना का क्रीडा - काल ही होता है, परंतु वृद्धावस्था में भी कामवासना छूटती नहीं है । मन कामवासना में रममाण रहता है ! यह बात सभी ज्ञानी पुरूषों को शर्मजनक, लज्जास्पद और धिक्कारपात्र लगी है । वृद्धावस्था का वर्णन करते हुए एक संस्कृत भाषा के कवि ने कहा है गात्रं संकुचितं, गति विगलिता, दंताश्च नाशं गता, दृष्टि भ्रस्यति, रूपमेव हसते, वक्त्रं च लालायते । वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः, पत्नी न सुश्रूयते, धिक् कष्टं हा जराभिभूत पुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ।। वृद्धावस्था में शरीर संकुचित हो जाता है यानी शरीर पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं, गति - आगति स्खलित हो जाती है, दाँत गिर जाते हैं, आँखें धुंधली हो जाती है, निःस्तेज हो जाती हैं, रूप- लावण्य घटता जाता है, मुँह से लार टपकती है, बंधुजन उसकी आज्ञा नहीं मानते, पत्नी भी उसकी सेवा नहीं करती है, पुत्र भी उसकी अवज्ञा करता है... इसलिए जरावस्था से पराभूत पुरूष को धिक्कार हो ! चूँकि ऐसी करूणास्पद स्थिति में भी उसका मन कामवासना का त्याग नहीं करता है । कामवासना वृद्ध नहीं होती है । वृद्धावस्था को गुजराती भाषा में 'घड़पण' कहते हैं । इस 'घडपण' के उपर, उपाध्यायश्री विनयविजयजी के ही शिष्य रूपविजयजी ने एक काव्य लिखा है, बहुत अच्छा है, सुनें घड़पण कां तुं आवीओ ? तुज कोण जुए है वाट ? तुं सहुने अलखामणो रे, जेम मांकड़ भरी खाट अनित्य भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only १०७ www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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